Saturday, 25 June 2011

दूसरों की नहीं, खुद की आवाज सुनो

यह ऐडमिशन का मौसम है। कई बच्चे सिर्फ इसलिए हताश हैं कि उन्हें मनचाहे कॉलेज में दाखिला नहीं मिला है। एपल इनकॉरपोरेट के चेयरमैन और सीईओ स्टीव जॉब्स की जिंदगी में भी ऐसा समय आया था। यहां हम स्टेनफर्ड बिजनेस स्कूल में दिए उनके भाषण के कुछ अंश पेश कर रहे हैं , जिसमें उन्होंने बताया है कि ऐसे दिनों से वह किस तरह बाहर निकले थे।

आज का दिन मेरी जिंदगी में बहुत खास है। स्टेनफर्ड दुनिया की सबसे बेहतरीन यूनिवर्सिटीज में से एक है। मैं बहुत खुशकिस्मत हूं कि यहां मेरा सम्मान किया जा रहा है। मैं उन सभी लोगों का शुक्रगुजार हूं जिन्होंने मुझे इसके लायक समझा। बहुत कम लोग जानते हैं कि मेरे पास कॉलेज की डिग्री नहीं है। मैं कभी किसी ग्रैजुएशन प्रोग्राम में भी नहीं गया। इसलिए मैं नहीं जानता कि इस सम्मान समारोह को कैसे संबोधित करूं। मैं बस अपने जीवन के बारे में बता सकता हूं। मैंने अपने जीवन में कई तरह के उतार-चढ़ाव देखे हैं। उन्हीं से जुड़ी कुछ कहानियां मैं सुनाना चाहता हूं। मेरे जीवन की शुरुआत एक दुविधा के साथ हुई। यह दुविधा मेरी मां की थी। वह नहीं जानती थी कि मुझे कैसे पाले। जब मेरा जन्म हुआ , तब वह कॉलेज में पढ़ रही थी और बिनब्याही थी। इसीलिए उसने सोचा कि मुझे कोई अडॉप्ट कर ले तो अच्छा रहेगा। हां , वह यह जरूर चाहती थी कि मुझे जो लोग भी अडॉप्ट करें , उन्होंने कम से कम कॉलेज की पढ़ाई तो जरूर की हो। सबसे पहले एक वकील कपल ने मुझे गोद लेने की पेशकश की। लेकिन जैसे ही उन्होंने मुझे देखा , उनका विचार बदल गया। उन्होंने कहा कि वे किसी लड़के को नहीं , लड़की को गोद लेना चाहते हैं।

इसके बाद मेरी मां ने दूसरे कपल से बातचीत की। एक ही रात में सब तय हो गया। वे लोग मुझे गोद लेने को राजी थे , पर तभी मेरी मां को पता चला कि वे बहुत ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं। मेरी नई मां ने कॉलेज की पढ़ाई पूरी नहीं की थी। मेरे नए पिता तो हाई स्कूल भी पास नहीं थे। मेरी मां ने अडॉप्शन पेपर पर साइन करने से मना कर दिया। पर मेरे नए माता-पिता को मैं बहुत भा गया था। उन्होंने मेरी मां से वादा किया कि वे मुझे कॉलेज जरूर भेजेंगे। तब कहीं जाकर , मेरी मां तैयार हुईं। मुझे अडॉप्ट कर लिया गया। तो , यह मेरे जीवन की शुरुआत थी।

मुझे जन्म देने वाली मां का सपना पूरा हुआ। जब मैं 17 साल का हुआ तो मेरा दाखिला रीड कॉलेज में कराया गया। पर कॉलेज में दाखिला कराते समय ही मेरे माता-पिता की हालत खराब हो गई। मैं समझ गया कि मेरी कॉलेज फीस भरने में उनकी जिंदगी भर की जमा पूंजी लुट जाएगी। किसी तरह छह महीने बीते , पर तब तक मुझे अहसास हो गया था कि मैं यहां अपना समय बर्बाद कर रहा हूं और अपने माता-पिता की कमाई भी। मैंने कॉलेज छोड़ने का फैसला कर लिया। पर अभी मुझे ड्रॉप इन के तौर पर 18 महीने और गुजारने थे। नॉर्मल क्लासेज में तो मेरा मन लगता नहीं था , इसलिए मैंने कलिग्रफ़ी की क्लास में जाना शुरू कर दिया। कलिग्रफ़ी मुझे बहुत अच्छी लगती थी। कैंपस में लगे पोस्टरों , अल्मारियों की दराजों पर चिपके लेबल , सभी पर सुंदर-सुंदर शैली में उकेरे अक्षर मुझे बहुत आकर्षित करते थे। बस , मैं रोजाना कलिग्रफ़ी की क्लास में जाने लगा। कोई भी कहेगा कि साइंस छोड़कर कलिग्रफ़ी पढ़ना , कितनी बड़ी बेवकूफी है लेकिन यकीन मानिए यह मेरी जिंदगी का सबसे अच्छा फैसला था। दस साल बाद जब हमने पहला मैकिनतोश कंप्यूटर बनाया तो वही कलिग्रफ़ी मेरे काम आई। यह पहली बार था कि किसी कंप्यूटर में सुंदर टाइपोग्राफी का इस्तेमाल किया गया था। अगर मैं नॉर्मल क्लास छोड़कर कैलीग्रीफी न सीखता तो मैक को कभी मल्टीपल टाइप फेस न मिलते।

इसलिए हम सभी को मानकर चलना चाहिए कि सब कुछ अच्छे के लिए होता है। आपको अपनी हिम्मत , भाग्य और कर्म पर भरोसा रखना चाहिए। मेरी दूसरी कहानी मेरे प्यार की है। वॉज और मैंने अपने माता-पिता के गैरेज में एपल की शुरुआत की। तब मेरी उम्र 20 साल थी। देखते ही देखते हमारी मेहनत रंग लाई। एपल एक छोटी सी कंपनी से दो अरब डॉलर की कंपनी बन गई। ऐसा सिर्फ दस साल में हुआ। लेकिन तभी कुछ ऐसा हुआ कि मुझे अपनी कंपनी छोड़ देनी पड़ी। एपल से मुझे निकाल दिया गया। क्या किसी को अपनी ही कंपनी से निकाला जा सकता है ? मेरे साथ ऐसा ही हुआ। मेरे बहुत खास दोस्त ने कंपनी के बोर्ड ऑफ डायरेक्टरों के साथ मिलकर ऐसा किया। मुझे लगा , दुनिया मुझ पर हंस रही है। मैं एक असफल आदमी हूं। मैं टूट गया। अब मेरे पास क्या था ? मेरा सब कुछ खत्म हो चुका था।

फिर मैंने सोचा , क्या सचमुच ऐसा है ? मेरा प्यार अब भी मेरे साथ है। मेरा काम ही तो मेरा प्यार है। क्या मैं फिर से शुरुआत नहीं कर सकता ? मेरे भीतर असफलता की निराशा की जगह , उत्साह की आशा ने ले ली। मैंने नेक्स्ट नाम से नई कंपनी की शुरुआत की। फिर पिक्सर बनी। पिक्सर ने ही दुनिया की पहली कंप्यूटर एनिमेटेड फिल्म टॉय स्टोरी बनाई। आज पिक्सर दुनिया का सबसे सफल एनीमेशन स्टूडियो है। इसी दौरान मेरी मुलाकात लॉरिन से हुई और बाद में हमने शादी कर ली। अगर मैं एपल से निकाला नहीं जाता तो क्या यह सब होता ? बाद में एपल ने नेक्स्ट को खरीद लिया और मैं एपल में वापस आ गया। मैं समझ गया , मेरे साथ कुछ अच्छा होना था , इसीलिए यह सब हुआ था। कई बार हमें अपने सामने का रास्ता बंद नजर आता है। फिर एकाएक कोई नया रास्ता नजर आता है और उसी पर चलकर हमें मंजिल मिलती है।

मेरी तीसरी कहानी भी भरोसे की है। जब मैं 17 साल का था , तब मैंने एक कोट पढ़ा था- अगर आप अपनी जिंदगी के हर दिन को यह मानकर जिएं कि यही आपका आखिरी दिन है तो एक दिन आप जरूर सही साबित होंगे। पिछले 33 सालों से मैं अपनी जिंदगी ऐसे ही जी रहा हूं। हर दिन मैं आइने के सामने खड़ा होता हूं और फिर खुद से पूछता हूं- अगर आज का दिन मेरी जिंदगी का आखिरी दिन होता तो आज मैं क्या करता ? इसी तरह मैंने अपनी जिंदगी में सबसे अच्छी चीजों को चुना है। समय कम है इसलिए वह करो , जो खुद चाहते हो। वह नहीं , जो दूसरे तुमसे चाहते हैं। दूसरों की नहीं , खुद की आवाज सुनो।

Source: Navbharattimes.com

कभी था दाने-दाने को मोहताज, आज कर रहा लाखों की कमाई


दुमका के सुखजोरा गाँव का उपेन्द्र मांझी आज जिले के सैंकड़ों मतस्य पालकों के लिए आईकन बन चुका है। मछली उद्योग से जुड़ा़ हर कोई आज उपेन्द्र की तरह ही आगे बढऩा चाहता है। उसकी तरह ही अत्याधुनिक तरीके से मछली उत्पादन कर अपनी आर्थिक स्थिति को मजबूत बनाना चाहता है।
कठिन मेहनत व लगन से सालों भर मछली पालन कर सैकडों मतस्य पालकों के लिए एक नयी राह दिखाने वाले उपेन्द्र कभी दाने-दाने को मोहताज था, लेकिन आज वह लाखों की कमाई कर रहा हैं। स्थिति यह है कि वह अपने साथ गांव के कई बेरोज़गार युवकों को भी इससे जोडक़र उन्हें स्वालंबी बना रहा है।
कभी थी कमाई चार हजार, आज पा रहा 20-22 हजार प्रतिमाहवर्ष 1997 में पिता के असामयिक निधन के कारण उपेन्द्र की दुमका स्थित पोलटेकनिक कॉलेज में पढ़ाई छूट गयी। घर को चलाने के लिए उसने चार हजार मासिक वेतन पर एक प्राईवेट नौकरी करनी पड़ी। इसी दौरान उसने गांव के अपने दो तालाब पर मछली का जीरा डाल दिया।
छह माह के बाद वह मछली बढक़र कई किलो की हो गयी। उसने उसे निकट के बाजार में बेचकर अच्छा मुनाफ कमाया। बस यहीं से उसने इस उद्योग से नाता जोड़ दिया। उपेन्द्र दैनिक भास्कर से बातचीत में कहते हैं कि वर्तमान में उसके पास अपने दो तालाब हैं और करीब 15-16 तालाब वह दूसरे से बटाई के रूप में लिया है और उसमें मछली पालन कर रहा है।
वह इन तालाबों में सालों भर मछली उत्पादन करता है। वह कहता है कि प्रति वर्ष वह करीब 80 से 100 क्विंटल मछली उत्पादन कर लेता है और उसे दुमका के अलावा गांव-देहात के हाट में ही खपा देता है। जिससे उसे प्रतिमाह करीब 20-22 हजार की कमाई हो जाती है। उसने अपने गांव के ही रामप्रवेश केवट, राजेश केवट, संजीव गुप्ता समेत कई अन्य बेरोजगार युवकों को भी जोड़ लिया है और उसे अच्छी खासी मजदूरी दे रहा है। ये सभी युवक तालाब से मछली उठाने के बाद उसे मोटरसाईकिल के पीछे खांचा में रखकर हाट में ले जाकर बेचते हैं।
बेरोजगारों को कर रहे हैं मछली उद्योग से जुडऩे के लिए प्रेरित
बेरोजगार युवकों को मछली उद्योग से जुडऩे की सलाह देते हुए उपेन्द्र कहते हैं कि अगर मेहनत व ईमानदारी से इस पेशे को किया जाये तो सरकारी नौकरी भी इसके सामने बेकार है। हालांकि वह कहते हैं कि जिला मतस्य विभाग व बैक इस रोजगार से जुडऩे के लिए इच्छुक लोगों को मदद करें तो यह हजारों व लाखों की संख्या में रोजगार प्रदान कर सकता है। जानकारी के अनुसार, वर्तमान में स्थिति यह है कि विभाग द्वारा उपेन्द्र को मतस्य मित्र के रूप में नियुक्त कर उसे अन्य मतस्य पालकों को प्रशिक्षण देने के लिए रखा है और उपेन्द्र द्वारा जिले के किसानों को अत्याधुनिक खेती के लिए प्रेरित कर रहे हैं। प्रशिक्षण भी दे रहे हैं। विभाग ने उपेन्द्र को वर्ष 2009 में आंध्र प्रदेश भेजा था जहां वह अत्याधुनिक तरीके से मछली उत्पादन का तरीका सिखकर वापस आया है।



Source: Bhaskar.com

Friday, 3 June 2011

150 की नौकरी, 10 साल और 10 लाख का कार नंबर


जयपुर. 10 साल पहले तक जिस व्यक्ति ने ढाबे में 150 रुपए महीने की नौकरी की, गुरुवार को उसी ने अपनी बीएमडब्ल्यू के लिए राजस्थान में अब तक का सबसे महंगा वीआईपी नंबर खरीदा। मालवीय नगर निवासी राहुल तनेजा ने कार नंबर ‘आरजे 14 सीपी 0001’ 10 लाख रु. में खरीदा है। इससे पहले 29 अप्रैल, 2011 को यूडी 0001 नंबर साढ़े पांच लाख रु. में बिका था। राहुल की अभी इवेंट मैनेजमेंट कंपनी है, लेकिन यहां तक पहुंचने से पहले उन्होंने सड़क पर फुटकर सामान बेचा, इसके बाद कैटरिंग और मॉडलिंग भी की।

देर रात तक नौकरी, दिन में पढ़ाई: राहुल तनेजा ने 11 साल की उम्र में गरीबी से तंग आकर घर छोड़ दिया था। दो वक्त की रोटी के लिए दो साल तक आदर्श नगर में ढाबे पर 150 रुपए प्रति माह में काम किया। तंगहाली के इस दौर में भी राहुल ने पढ़ाई नहीं छोड़ी। 150 में से 80 रुपए वह आदर्श विद्यामंदिर स्कूल में अपनी फीस जमा करते थे। वे देर रात तक ढाबे पर काम करते थे और दिन में स्कूल जाते थे। इसकी का नतीजा रहा कि वे हर बार अच्छे अंकों से पास हुए।

इतने से भी जब खुद का खर्च पूरा नहीं हो पा रहा था तो उन्होंने पटाखे बेचे। बाद में दिल्ली से चमड़े के जैकेट लाकर जयपुर में बेचने का काम शुरू कर दिया। उन्होंने सिंधी कॉलोनी में 600 रुपए महीने में किराया का कमरा लिया। इसमें कई पार्ट टाइम काम शुरू किए। 1998 में मॉडलिंग शुरू की तो मिस्टर जयपुर, मिस्टर राजस्थान मेल ऑफ द ईयर और नार्थ इंडिया को टॉप मॉडल रहा, लेकिन मॉडलिंग में उस समय शोहरत थी, उतना पैसा नहीं। इसीलिए 23 अक्टूबर 1999 को इवेंट मैनेजमेंट कंपनी खोली। साथ ही उसने पढ़ाई जारी रखी, सन् 2000 में बीकॉम पास कर लिया।

राहुल ने पांच साल तक छोटे छोटे इवेंट किए। इसके बाद एक बड़ी कंपनी से डील हुई। उस समय राहुल 2 लाख तक के इवेंट करता था, लेकिन उस कंपनी ने उन्हें 1 करोड़ का इवेंट ऑफर किया। इसके बाद तकदीर ही बदल गई। अब राहुल के पास कई लक्जरी गाड़ियां और खुद का बंगला है। बीएमडब्ल्यू गाड़ी उन्होंने 9 मई को खरीद ली थी, लेकिन वीआईपी नंबर के लिए रुके हुए थे। इससे पहले भी उनके पास दो गाड़ियों पर वीआईपी नंबर हैं।

पिता पंक्चर लगाते थे: राहुल के पिता पंक्चर लगाते थे। उनके चार बेटे और एक बेटी थी। इस कारण परिवार हमेशा तंगहाली में रहा। राहुल शुरू से ही एक अच्छा जीवन, अच्छी राह से पाना चाहते थे। पिता पढ़ाने में सक्षम नहीं थे। यही कारण है कि उन्होंने अपने पिता का घर छोड़ा। अब उनके मां पिता बड़े भाइयों के साथ रहते हैं, लेकिन राहुल से उनके अच्छे संबंध हैं।

गुरुवार को सीपी नंबर की नई सीरीज के वीआईपी नंबर के लिए बोली लगी थी। इस नंबर के लिए तीन लोगों ने आवेदन आए थे। खुली टेंडर प्रक्रिया के तहत यह नंबर10 लाख में बिका है। वीआईपी नंबरों की नीलामी के लिए तीन सदस्यीय कमेटी का गठन किया हुआ है, जिसके सामने बोली लगती है। प्रक्रिया में पूरी पारदर्शिता रखी गई है। - डॉ. बीएल जाटावत, आरटीओ।

Source: Dainik Bhaskar