Tuesday, 30 November 2010

Julian Assange- Shoot the messenger!


Today when I saw Times of India ( India's leading newspaper, I was intrigued by the double standards of America. On the one hand it shows the friendly gesture, on the other it stabs. Here I am referring the remarks made by Hilary Clinton.

Before moving further I wants to thank Mr. Assange. Without his leadership and effort it would not have been be possible. I have done extensive research on him and seen all the major available videos, interviews and the press conferences of him.

In the old time as and when the king does not like message they use to order the killing of Messenger. The unfolding of the events are quite similar to that experience. As the leaks have exposed the true policies, the politicians started to develop a plot against him and Hilary is leading the peck.

It is quite premature to comment on future of Jullian Assange but I hope quite hopeful about the future. I am sure in the future there will be many more Jullian Assange and the politicians simply can't face those. Recently the other German guy from his team who left Wikileaks is planning to start a similar haven for whistle blowers.

The thing is this now the entire battle field is different. Earlier channels of mass media were in the hand of few and were controlled by the politicians to their advantage. But aftermath of Internet spread it is being highly decentralised. Increasingly, especially in the west it is the only media going to be the one where to disseminate your views.

If we see this event, within a fraction of second just after release people start twittering, sending message on the facebook. Do think it will not influence the mindset of the voters? One must have lost senses if he think it won't.

Facebook have over 500 million users, more than the population of US. Nearly all US citizen age group below 35 are the users of facebook which is indeed a major chunk.

As Thomas Friedman has said- world is flat... it is indeed becoming flat. Thin line between the hierarchies are diminishing.

Just like everything this will also pass on to the other countries and will see a great improvement in the governmet's accountability.

Bluemango

Wednesday, 24 November 2010

Dowry in India


London - my lonely room


(Names, places has been changed to hide the identity)

Today I am here to talk about one of the most talked topic during this festive season of marriages. Albeit it is the nrgative part but turning a blind eye is not a solution to any problem.

Yesterday I got a news that the wedding of my cousin sister Neha(names changed) which was supposd to be on Dec 3rd next week is being called off. Now I do not should I be happy or be sad. I chose to be happy and proud of sister and uncle's decision.

The previous week it was the wedding of Neha's brother's. Our family does not demand any dowry. It was a humble wedding from so called "Dowry Standard of India". I felt happy as we did not demand anything and the girl's father did what he thought best for his capacity.

After this Neha's fiance asked her about the marriage and was keen interest in knowing how much dowry received. She replied what was the real situation. On hearing this the boy's attitude changed. He started saying that in his society it is a matter of disgrace if somebody receives less dowry and he is expecting a hefty amount as Neha is the lone girl child in her family and similar other thoughts followed showing clear intention of dowry demand.

On hearing this Neha informed my uncle about the latest development in the relation. On that my uncle argued and then finally called of the engagement.

From a western perspective calling of the engagement is not a big deal but in case rural india it is.

I felt happy that Neha stood aginst his wishes and do not gave into his demands. If somebody before marriage asking for such things then he quite rightly demand the other things later on. On culmination of the marriage the lady get the tag of " divorcee" which is much worse.

I might sound bit socially ignorant but use to think that these stories are cooked up by the media and bears no resemblance with the reality. But seeing first hand realised it is not just mare cooking up of the facts.

I want to ask the youth of India, when the god has given you two hands why you need to show infront of others. The real machoism is not in fighting with the street hooligan but real machoism comes here. Your two hands and you brain is the biggest gift from the god. There is no limit onto the wealth generation. Trust yourself and will succeed. For how many days you can sustain on dowry money. I consider them the worst than a beggar.

At least beggar is outright open about it but so called gentleman hide behind the prosperity.

I wish there should be many more Nehas then only there is a hope in the future.

Bluemango

Sunday, 14 November 2010

अनोखा रिश्ता - ( मेरी पहली रचना )


अनोखा रिश्ता - ( मेरी पहली रचना )

Day 16- London

(It is my first attempt on writing in Hindi. Sorry for any spelling mistakes. If you like/hate it please leave comments/suggestions in the end )

सुरेंद्र और रतनी जब अदालत से तलाक़ के कागाज़ो पर हस्ताक्षर करवाकर लौट रहे थे तो खुद को काफ़ी हल्का महसूस कर रहे थे | घर पर आने के बाद उनकी सबसे बड़ी समस्या थी - घर | घर मे कुल तीन कमरे थे | कुछ दिनों के लिए यह सोचा गया की दोनों एक-२ कमरा लेंगे और तीसरा कमरा बतौर ड्रॉयिंग रूम के दोनो इस्तेमाल करेंगे | रसोई खर्च और नौकर का वेतन भी दोनो लोग आधा-2 शेयर करेंगे |

दुलीचंद ने बेडरूम से एक पलंग हटाकर दूसरे कमरे मे रख दिया | जब सुरेंद्र अलमारी मे कपड़े जचा रहा था तो उसने संतुष्टि से कहा की शुक्र है भगवान का की हमने ऐसा पेचीदा मामला इतनी समझदारी और बिना कोई लड़ाई झगड़ा किए निपटा लिया | उधर रतनी भी खुश थी | उसने भी कपड़ो की तय करते हुए कहा की हम दोनो ड्रॉयिंग रूम की इस्तेमाल कर सकते हैं अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के लिए |

झटकते हुए सुरेंद्र ने कहा क़ि तुम उन लोगों को अंधेरे मे रखना चाहती हो? सच्चाई छिपाना चाहती हो?"

"परंतु सभी को उजागर करने से भी तो कोई फ़ायदा नही है" रतनी ने तपाक से जवाब देते हुए कहा |

इधर दुलीचंद सुबह से ही बहुत परेशन नज़र आ रहा था | जब सहन नही हुआ तो हाथों पर सिर रखकर रोने लगा | " भगवान क़ि दया से मुझको जाने दो | इन हालत मे मै काम नही कर सकता |"

सुरेंद्र ने उसे शांत करते हुए कहा क़ि, " इससे तुमको क्या परेशानी है? तुम यहा कुछ वक्त तक रहोगे और उसके बाद तुम हम मे से किसी एक के साथ जा सकते हो"

"अच्छा ठीक है तुम मेरे साथ रहोगे" रतनी ने कहा |

सुरेंद्र ने बिना कोई चिंता फिकर किए पैर लंबे किए | क्या आराम है? बिल्कुल आज़ाद | ऐसा महसूस हो रहा था जैसे क़ि किसी जेल से छूट के आ रहा हो | किस को कुछ जवाब देने क़ि देने की ज़रूरत नही की कब आ रहा कब जा रहा है , कहाँ जा रहा है |

घर -ग्रहस्थी क़ि सभी ज़िम्मेदारीओं से बिल्कुल मुक्त | बिल्कुल एक आज़ाद पन्छी क़ि तरह | सोच रहा था क़ि किस चीज़ ने उसको इतना कमजोर बनाया | क्या वो वही सुरेंद्र नही था जिसने एक वक़्त रतनी से शादी करने के लिए समाज क़ि सारी परम्परायें तोड़ डाली थी |

इधर रतनी भी अपने पैरों पे खड़ी होने के बिल्कुल काबिल थी | जब जीवन साथी से किसी प्रकार क़ि कोई आशा नही हो तो चिपकना किस लिए | वो भी अब बिल्कुल हल्का महसूस कर रही थी | तैयार थी अपनी खुद क़ि पहचान बनाने के
लिए |

रात का खाना दोनों कमरों मे लाया गया | सुरेंद्र तो खाना खाने के तुरंत बाद सो गया पर रतनी रात भर करवटें बदलती रही |

अगले दिन सुरेंद्र ताला बंद करके तुरंत निकल गया | ऐसा गया क़ि पूरे तीन दिन बाद लौटा | रतनी अपने दिनचर्या के हिसाब से स्कूल जाती और रोज़ शाम को आ जाती , बिल्कुल एक आग्यकारी ग्रहणी क़ि तरह | उसको अब पहले क़ि तरह अपने मायके जाने क़ि भी ज़रूरत महसूस नही हुई | पहले तो उसने बंद ताले को अनदेखा करना चाहा पर जब रहा नहीं गया तो उसने दुलीचंद से पूछा लेकिन सुरेंद्र उसको भी कुछ बता के नही गया था |

चौथे दिन लौटते से सुरेंद्र सीधे अपने कमरे मे चला गया | वो बस बैठा ही होगा क़ि रतनी दरवाज़े पर आकर खड़ी हो
गयी |

तुरंत सिर हिलाते हुए सुरेंद्र ने कहा ….ना ना ना … अब नही चलेगा पहले क़ि तरह … अब मेरे को सफाई देने की कोई ज़रूरत नही है |

"तुम मेरे को बिल्कुल ग़लत समझ रहे हो | मै बिल्कुल अलग चीज़ के लिए आई हूँ | दरअसल मेरे को तनख़्वा मिलने तक पचास रुपये उधार चाहिए | जैसे ही मेरे को पहली तारीख को तनख़्वा मिलेगी मै तुरंत लौटा दूँगी |"

रतनी को पचास रुपये देते हुए उसने दुलीचंद को आवाज़ दी, "सुनो मै कुछ करेले लेकर आया हूँ | पकाओगे ना तुम? "

इस पर रतनी ने कहा क़ि इसको कल पका लेंगे | काफ़ी कुछ पहले से ही बना रखा है | मेरा मतलब है जब दोनो शेयर कर ही रहे हैं तो इसको भी कल आधा आधा कर लेंगे |

सुरेंद्र ने दारू क़ि बोतल निकाली और सोफे पर पालती मार के बैठ गया | दुलीचंद इशारा अच्छी तरह समझता था| बिना कुछ कहे उसने भुना हुआ मुर्गे का गोस्त उसके सामने रख दिया |

कुछ देर बाद, रतनी फिर दुबारा से आई | "पति -पत्नी न सही, क्या हम दोस्तों क़ि तरह नही रह सकते? मेरा मतलब कुछ सभ्य ढंग से"

"तुम अपना ठिकाना कहीं और क्यों नही ढूंड लेती |" पलटकर सुरेंद्र बोला |

"बात ये नही है | मेरे मतलब मै तुमको इस तरह से पी पीकर मरते नही देख सकती"

किसने तुमको देखने के लिए कहा है? तुम खुद अंदर आई हो |"

छीनकर रतनी ने बोतल अलमारी मे रख दी और बड़ी अदा से अपने कमरे मे चली गयी | उसके जाने के बाद सुरेंद्र क़ि हिम्मत्त नहीं हुई क़ि बोतल को फिर दुबारा से हाथ लगाए |

दिन ऐसे ही बीतते गये और पता ही नही चला क़ि तलाक़ के बाद चार महीने कैसे गुजर गये | इस दौरान काफ़ी कम समय के लिए ही आमना-सामना हो पाता था | या तो दुलीचंद के पास हिसाब करते वक़्त या सुभह बाथरूम जाते
वक़्त | और अगर ग़लती से भेंट हो भी जाती तो थोड़ी बहुत रतनी के स्कूल या सुरेंद्र के कॉलेज के बारे मे ही बात होती थी, केवल औपचारिकता बतौर |

एक दिन अचानक सुरेंद्र ने महसूस किया की रतनी पिछ्ले कुछ दिनों से कमरे से बाहर नही निकली है| उसने देखा की मिलने वालों का ताँता लगा हुआ था | वो सब औरतें उसके साथ स्कूल मे पढ़ाने वाली साथी टीचर्स थी |

दुलीचंद से पूछने पर पता चला की रतनी बीमार है | वो खुद तुरंत कॉलेज से आने के बाद सीधे रतनी के कमरे मे गया | उसका शरीर बिल्कुल पतला हो गया था मानो उसमे कोई जान ही बाकी ना हो | खाली हड्डियों का एक ढाँचा |

दुलीचंद पहले ही डॉक्टर को बुला लाया था और कहे अनुसार दवाइयाँ भी ले आया था | सुरेंद्र किताबों की अलमारी के पास खड़ा हो गया | किताब के पन्ने पलटते हुए कहा की एक दोस्त की हैसियत से मै यह तो पता कर सकता हूँ की तुम्हारे पास पैसे हैं की नही? और जवाब का इंतजार किया बगैर दुलीचंद को बुलाकर कुछ फल और रतनी की ज़रूरत की चीज़ें लाने को कहा |

उसने रतनी को इतना असहाय कभी नही देखा था |

इसी तरह दो महीने और बीत गये | न तो सुरेंद्र ने घर बदला, ना ही रतनी ने दूसरा घर तलाशने की कोशिश की | एक दिन दुलीचंद ने घर जाने के लिए रतनी से एक महीने की छुट्टी माँगी और घर चला गया |

स्कूल से लौटते वक़्त, रतनी ने खुद के लिये चाय बनायी और जब देखा की सुरेंद्र भी आ गया तो दो चाय के लिये पतीले मे पानी चढ़ा दिया | वो किताब पढ़ने मे लीन था और कप हाथ मे लिया, बिना ध्यान दिए की चाय कौन लेकर आया है | रतनी खुश थी और कुछ देर तक खड़ी होकर ध्यान से सुरेंद्र को देखती रही | फिर किताब छीनते हुए " श्रीमान बेहतर होगा की आप पहले चाय पी लें | "

सुरेंद्र एकदम खड़ा हुआ, " तुमने चाय बनायी? क्यों?" हाँ मैने, दुलीचंद छुट्टी पर चला गया है इसलिए | रतनी हँसी और खाना पकाने रसोई मे चली गयी | कुछ देर बाद वो वापस आई और कहा, " क्या मेरी मदद करोगे? पुराने दिनों की तरह?"

"पुराने दिनों? क्या मतलब है तुम्हारा? हम आज मे हैं और हमको आज की ही बात करनी चाहिए | "

"कभी-२ तो पड़ोसी से भी लोग मदद माँगते हैं |"
उसके खुले लंबे कालें बालों मे एक अलग ही मादकता भारी हुई थी|
बालों को अदा से छिटकते हुए फिर वापस रसोई मे चली गयी | साङी का पल्लू कंधों से नीचे खिसक चुका था पर रतनी ने ठीक करने की ज़रूरत नही समझी | सुरेंद्र का दिल तेज -२ धड़कने लगा | वो रसोई मे गया और रतनी की गर्दन पे एक चुंबन अंकित कर दिया, पता नहीं किस अधिकार से | इधर रतनी बिल्कुल शांत खड़ी रही | सुरेंद्र को खुद पे गुस्सा आया की उसने ऐसा क्यों किया, पछ्तावा हो रहा था | और तुरंत आकर सोफे पर बैठ गया |

कुछ देर बाद रतनी आई, सर झुकाया और सुरेंद्र को बाहों मे जकङ लिया | सुरेंद्र ने एक अपराधी की तरह छूटने
की कोशिश की परंतु गिरफ़्त इतनी मजबूत थी की खुद को रतनी से छुडा नही सका |

रतनी ने धीरे से कान मे कहा की मैने दरवाजा बंद कर दिया है |

"और खिड़कियाँ " सुरेंद्र बड़ी मुश्किल से बोला |

इस तरह तलाक़ के चार साल बाद भी दोनों साथ हैं ना जाने किस रिश्ते की पनहा पे |

(Thanks for taking time to read my first attempt. Kindly leave comments/suggestions. Sorry for the any spelling mistakes. It is difficult in writing in Hindi when you dont have the Hindi keyboard.)

Bluemango

Friday, 12 November 2010

Spanish Visa Rejected

Day 15       London     

Today I got the news that my Spanish visa is being rejected. To be frank I was not surprised though bit upset. The reason was straightforward. I did not completed the document as per instruction. Anyway from this i learned following lessons:

1. Always make a cover letter for the visa application. Explain as honestly as you can. As the visa officer wants to be convinced before issuing the visa. Especially in this age of terrorism no if there is slight suspicion they will straight away reject it.

2. Prepare in as detail as possible. Never trust bogus offeres.

Rest of the day was not so eventful.

Bluemango

मैं परिणिता हूं.....

Day 14- London 


womenसोमवार की ओम् स्वर से गूंजती, वह सुबह। जो हमेशा की तरह पवित्रिक और ओजस्वपूर्ण वातावरण से पूरे हरिद्वार को महका रही थी पर कहीं न कहीं उस रोज किसी के आने की कशिश ने अंबिका के दिल में उस वातावरण को और सुंगधित कर दिया था जितनी महक तो शायद असंख्य फूलों और अगरबत्तियों के मिलन पर भी न हो। उस दिन पूरे रोज अंबिका ने महेश के इंतजार से खुद के संवारना और निखारना ही अपना उद्देश्य समझा था जैसा वह उसे देखना चाहता था। छोटी दादी और कानपुर वाली मौसी की सेवा करते-करते भी वह इतना न थकी होगी। जितना उस रोज महेश के लिए पकवान बनाते-बनाते उसके हाथ थक गए थे..............


तब भी उसके माथे पर रंचमात्र भी थकावट की लकीर नहीं थी क्योंकि उसके पसीने की एक-एक बूंद को महेश के याद में बह रही बयार अपने साथ बहुत दूर उड़ा ले गई थी। घर की साफ-सफाई, फूलदान में ताजा गुलाब के सुर्ख फूल लगाने, छत पर सूखने को पड़े लाल मिर्च को इक्कठा कर के नीचे बरामदे में लाना, चौका-बर्तन करना, यहां तक कि पहली मंजिल पर बारजे से लगा महेश का कमरा जिसकी साज-सज्जा करना मानों अंबिका का धर्म था,उस दिन वह सभी कार्य जल्दी-जल्दी कर रही थी। पलंग के एक कोने से दूसरे कोने तक तनी सफेद चादर जिसमें अंबिका द्वारा कढ़ा लाल गुलाब मानों ऐसा लग रहा था कि जैसे दुधिया आकाशगंगा में कोई ग्रह लाल सागर से नहाकर तुरंत निकल आया हो। जिसे देखकर बाकि सब ग्रह ईष्यांवित हो रहे हों। " पलंग के बगल मैं तो सिंगारदान में इत्र रखना ही भूल गई। कितनी भारी गलती हो जाती मुझसे बाप रे बाप!", अंबिका के मुंह से तपाक से निकल पड़ा। उस दिन न जाने कितना कुछ उसके मुंह से निकल रहा था, जो होंठ हमेशा 'जी, हां जी, आई मां' जैसे शब्दों से ही हिलता था, वह उस रोज घड़ी की सुई की तरह टक-टक बज रहा था।  महेश के कमरे को सजाना ही उस दिन उसका परम कत्र्तव्य था क्योंकि महेश को सफाई बहुत पसंद थी, " उनकी अलमारी में कपड़े करीने से तह होकर रखें हैं कि नहीं 'जरा, देख लूं नहीं तो महेश बाबू का ज्वालामुखी समान गुस्सा कौन झेलेगा, गहरी नीली रंग की चेक की शर्ट, उनकी सबसे प्रिय सहेली और मेरी सौतन, उसको रामू काका के यहां से प्रेस कराकर अच्छा हुआ आज ही मैं ले आई, शुक्रिया मातारानी! अब ठीक से उसे हैंगर में लगाकर टांग दूं।" अंबिका के मुंह से निकला। उसने जल्दी-जल्दी पूरा कमरा साफ किया खिड़की के परदे उसने कल ही बदले थे। महेश की रीडिंग टेबल पर घड़ी, कलम और फतेहपुर वाली उनकी दूर की मामी द्वारा दी गई काली डायरी के साथ आज का अखबार उसने ठीक से रख दिया। अब जाकर चैन आया उसे, "पूरा घर साफ हो गया।", तभी उसकी नजर सिंगार दान में खड़ी अंबिका पर पड़ी जो उसे अपनी ओर खींच रही थी, उस अंबिका नें बोला "क्यूं रे अंबू ...



धरती और आकाश का मिलन
किस अधिकार से तू महेश का इन्तजार कर रही है? उसका कमरा साफ कर रही है। क्या लगता है वह तेरा? औकात क्या है तेरी इस घर में, किसके लिए सजी धजी है तू? धरती और आकाश का मिलन कभी नहीं होता अंबिका! संभाल ले तू अपने आपको... वो पढ़ा लिखा सुशील युवक है पेशे से वकील है और तू अनपढ़, जाहिल, नौकरानी है।" "नहीं... नहीं..." अंबिका ने दोनों कानों को आवेग से, हाथों द्वारा बन्द कर लिया और वह धप्प से जमीन पर बैठ गई "क्या सचम़ुच मैं कुछ नहीं उनकी, बचपन से जिन्हें पाने की प्रार्थना नुक्कड़ वाले शिव मन्दिर में हर रोज रो-रोकर की, मां गौरी को हमेशा मैंने सिन्दूर चढ़ाया कि एक दिन...। उफ! क्या ऐसा हो पायेगा...?" और बहने लगी अंबिका की आंखों से गंगा की धारा, जैसे बीच-बीच में किसी पत्थर के टकराने से धारा उच्च स्वर गुंजित करती हैं वैसे ही महेश की याद में अंबिका कभी-कभी तेज से सिसकी भी ले रही थी अपने मासूम प्रेम की भविष्य कि चिन्ता कर-करके। " अरे! कलमुंही सब्जी जल रही है।" नीचे बरामदे में बैठी महेश की छोटी दादी ने चिल्लाकर कहा। "आ रही हूं मां..." महेश उन्हें मां शब्द से संबोधित करता है। और अंबिका महेश का अनुसरण करना ही अपना धर्म समझती है। वे सीढिय़ों से चप्पल की तेज-तेज आवाज करते हुए नीचे उतरने लगी। "माफ कर दीजिए मां, कमरा साफ करने में देरी हो गई, अभी जाकर सब्जी उतार देती हूं।" अंबिका ने रूआंसे स्वर में बोला। "देख छोकरी! तू इस घर की नौकरानी है। गरीब दीनानाथ की बेटी है। जिसने हमारे पूर्वजों की बरसों सेवा की है। उसी का ख्याल करके हमने तुझे यहां रहने दिया। अपनी आस्तीन के अन्दर रहना सीख! बाहर निकलेगी तो तुझे हमेशा के लिए यहां से चला जाना होगा नौकरानी है तू नौकरानी...। रानी बनने का ख्वाब छोड़ दे लड़की।" धमकाते हुए छोटी दादी ने बोला। तभी महेश की मौसी ने बोला, क्यू दादी लड़की जवान हो गई है। ताड़ के पेड़ की तरह और बला की खबसूरत भी है। कुछ ऊंच-नीच हो गई तो!


घर में कोई है...? खूबसूरत लड़की ज्यादा दिन तक अपनी खूबसूरती से अपरिचित नहीं रह पाती, और न दूसरों से बचा के रख पाती है, कहो तो! अपने सुसराल में काम करने वाले श्यामू माली से बात चलाऊं। क्या हुआ उसके दो जवान लड़के हैं, बिचारे की बीवी दो साल पहले टीबी की बीमारी के कारण मर गई थी। घर में कोई काम करने वाले है नहीं। इसी कलमुंही से कहो तो बात चलाऊं वैसे भी कौन शादी करेगा इस गंवार से?" यह सुनकर अंबिका का दिल धक से रह गया " जाने! भगवान मुझ बदनसीब पर अब क्या दुख डालने वाले हैं। तभी अचानक...ठक-ठक...। 'घर में कोई है...? यह आवाज सुनकर अंबिका का पूरा शरीर ऐसे हिल गया जैसे किसी पेड़ को हवा के झोंके हिला देते हैं। अंबिका किचन से दौड़ती हुई बरामदे में ऐसे आई, मानों कोई चुम्बक उसे अपनी ओर खींच रहा हो। लेकिन छोटी दादी और मौसी को देखकर उसने अपने आपको बहुत मजबूती से रोक लिया, क्योंकि वे सही ही कहती हैं, कि एक अभागिन का चेहरा कभी भी किसी के सामने नहीं पडऩा चाहिए।
'क्या...? क्या मैं उनकी दुश्मन हूं" तभी अचानक मौसी बोली, " ऐ लड़की! जा देख कौन है?" अंबिका ऐसे दौड़ कर भागी जैसे उसे मुंह मांगी मुराद मिल गई हो। जिन लोगों ने उन्हें पाला है, वह उनकी आवाज पहचान नहीं पाए और मैं निरिख!  कितना गहरा रिश्ता है, इस आवाज से मेरा, अंबिका मन में सोचती हुई आगे बढ़ऩे लगी कि "वह शांत किशोर एक सुदर्शन युवक हो गया होगा, विलायत से जो पढ़कर आ रहे हैं जनाब, पत्ता नहीं कैसे होंगे वगैरह-वगैरह"। ऐसे ख्याल उसके मन को आसमान की ऊंचाई को छूने को प्ररित कर रहे थे। अपने मन को रस्सी में बांधकर अंबिका ने दरवाजा खोला "आप...महेश बाबू...!" उस शख्स को देखते ही अंबिका जमीन में जा गढ़ी और आंख को पतझड़ बनाने की कोशिश में एक बारगी बाड़ सी आ गई उसकी आंख में जिसमें हिलता-डुलता, शराब में धुत, बिखरे बाल, खद्दर का कुत्र्ता-पैजामा पहने युवक ऐसा लग रहा था मानों उसमें धूल, मिट्टी ने अपना घर बना लिया हो, आंखों के काला गड्डे एक काले पानी के भंवर के समान लग रहे थे उसमें एक कमजोर युवक उसके सपनों का राजकुमार महेश बाबू का बिम्ब धुमिल दिख रहा था।
यह वही महेश बाबू हैं जो जेन्टल मैन बनना पसन्द करते थे वो आज ऐसे... हो गए होंगे। ये उसके सपने में भी नहीं सोचा था"। क्यूं रे अम्बू... पहचाना नहीं अपने महेश बाबू को...अन्दर आने को नहीं कहोगी...? महेश ने लडख़ड़ाते हुए बोला... अपना सुनकर अंबिका को जैसे भगवान मिल गए। उसने आंसू को साड़ी के किनारे से पोंछते हुए कहा, क्यूं नहीं... महेश बाबू मुझ जैसी नाचीज क्या ये गुस्ताखी कर सकती है, आइए अन्दर आइए... मां कबसे आपका इन्तजार कर रही हैं, मां... महेश बाबू आ गए।" बड़े हक से अंबिका ने अपना पूरा अधिकार महेश पर जताकर कहा, महेश को सहारा देकर अंबिका उसे मां के पास ले गई जिनकी बूढ़ी आंखें कब से उनका इन्तजार कर रही थीं "आ गए बेटा... कितने दुबले हो गए, विलायत में मन नहीं लगा, क्यूं आ गई न मां की याद ।", बूढ़ी दादी ने कहा। बिचारी मां उस बदले महेश को अपनी मोतियाबिन्द वाली आंखें से समझ ही नहीं पाई"। अंबिका ने दिल में कहा। उसके मन में छोटी दादी के प्रति कितनी दया थी। जो उसे कोसते रहना ही अपनी दिनचर्या बना चुकी थी। " मौसी प्रणाम... कैसी हैं आप? "


दादी की देखभाल महेश ने लडख़ड़ाते स्वर में बोला"। "बस, इस बार कानपुर जाने को सोच रही हूं, अब तू आ गया, दादी की देखभाल करने। मेरी क्या जरूरत, तेरे पीछे मेरे बिना और कौन देखभाल करता था।" मौसी ने महेश के बगल खड़ी अंबिका को आंख तरेरते हुए बोला। "न,जाने कितनी बार कानपुर जाने का प्रोग्राम मौसी बनाती और फिर न जाने का बहाना कर देती, यहां जो काम करने को नहीं मिलता।," ये सोचकर मन ही मन महेश हंस रहा था जिसकी झलक उसके होठों पर भी आ रही थी, जिसे बगल में खड़ी अंबिका ने पढ़ लिया था, "क्यूं हंस रहे हो महेश बाबू कुछ याद आ गया क्या ?" अंबिका ने मजा लेते हुए बोला।
"ऐ छोकरी ज्यादा मत बोलाकर महेश का सामान उसके कमरे तक पहुंचा दे और सुन काम से काम रखाकर तेरा छिछोरापन मुझे कतई भाता नही गंवार कहीं की" छोटी दादी ने गुस्साकर कहा, क्योंकि उन्हें अंबिका और महेश का खामोश प्रेम बिल्कुल गंवारा नहीं था, तभी उन्होंने चिल्लाकर अंबिका से कहा। वह रोते-रोते दौड़ती हुई महेश का सामान लेकर कमरे में जाने लगी। "अम्बु सुन मैं भी आ रहा हूं, सोचूं थोड़ा आराम कर लूं। खाना तैयार है न! गोभी आलू की सब्जी, और पालक का साग क्यूं..." महेश ने कहा, "जी महेश बाबू," ये कहते हुए अंबिका महेश का सामान लेकर सीढ़ी चढऩे लगी और महेश पीछे-पीछे, यह देखकर ऐसा लग रहा था कि मानो नवदम्पति अपने मिलन को जा रहे हों। नई दुल्हन सुसराल का संस्कार और नए रीति-रिवाज उठाने की कोशिश कर रही हो। "अंबू... बहुत सुन्दर लग रही हो आज, क्या बात है?" महेश ने बोला, यह सुनकर अंबिका ने झट से पीछे देखा। गड्डे में धंसी आंखे, काला थका चेहरा, बढ़ी-दाढ़ी, गन्दे मैले कपड़े मे भी कामदेव की सुन्दरता अनुपम लग रही थी। च्च्ये क्या कह रहे हैं आप, मैं कहां सुन्दर हूं आप जितनी। विलायत में झूठ बोलना भी सीख गए, महेश बाबू...।" अंबिका ने पूरा जोर लगाकर कहा। फिर उसने साड़ी के कोने में बंधी चाभी के गुच्छे से महेश के कमरे की चाभी ढूंढनी शुरू की जिसे ढूढऩे में इतना वक्त लगेगा, उसने कभी सोचा भी न था। शायद... वह कुछ पल और महेश के साथ खड़ी रहना चाहती थी फिर उसने धीरे से दरवाजा खोला और फिर संजोग से दोनों के कदम एक साथ उस कमरे में पड़े। अंबिका ने अलमारी से महेश को कपड़ा निकाल कर दिया और उसे एकटक देखते हुए कहा, "मां आपको बहुत याद करती थीं," "और तुम...?" महेश के इतना कहने पर अंबिका की आंखे पानी की धारा लेते हुए बहने लगीं।
दुखी होकर वह कमरे से बाहर जाने लगी, बिना मुड़े पीछे से ही उसने कहा, "महेश बाबू आप आराम करिए। मैं खाना लेकर अभी आती हूं।" अंबिका के जाते ही महेश ने काले झोले से शराब की बोतल निकाली, और एक सांस में पूरी बोतल गट करके पी गया। "क्यूं महेश बाबू सो गए क्या...?" आधे घंटे बाद छोटी दादी और मौसी को खाना खिलाकर, अंबिका महेश के लिए खाना लेकर ऊपर आकर दरवाजा खटखटा कर बोली। "सो गए क्या महेश बाबू," "अरे! नहीं अंबू, दरवाजा खुला है, अन्दर आ जा।" महेश लडख़ड़ाते स्वर में बोला। कमरे में घुसते ही अंबिका को ऐसा लगा कि वह मधुशाला में प्रवेश कर गई हो, शराब की इतनी तेज बू मानो ऐसा लग रहा था कि पूरी दुनिया की शराब यहां बनती हो। अंबिका ने पलंग से लगी मेज पर खाने की थाली को गुस्से से रख दिया। और साड़ी के कोने से मुह ढंककर जाने लगी। तभी महेश ने टोकते हुए कहा, "अंबू नाराज है मुझसे,। क्यूं खाने के साथ पानी नहीं देगी, पूछेगी नहीं शराब क्यूं पीने लगा मैं? बोल...।" जाते जाते किसी हक ने मानों उसे रोक दिया हो, और अंबिका ने दरवाजे की आड़ से महेश को देखा, ट्यूबलाइट की तरह जलती-बुझती आंख, मानों उसे प्रणय निवेदन के लिए बुला रही हो। उस मासूम चेहरे को छोड़ जाने का मन अंबिका का नहीं कर रहा था, क्योंकि कहते है न। आप जिससे प्यार करते हैं, उसकी बुराई को अपनाना ही सच्चा प्रेम है लेकिन अंबिका ने अपने ऊपर काबू रखकर कहा," क्यूं जी, क्यूं महेश बाबू क्यूं पीते हो यह काला पानी।"
अंबिका को शराब से चिढ़ थी क्योंकि उसके पिता की मौत की वजह शराब ही थी वह सोचती थी यमराज, शराब के रूप में दुनिया में आते हैं और लोगों को उठा कर ले जाते हैं। वह अब महेश को खोना नहीं चाहती थी। " क्या कहा काला पानी। हठ... यह काला पानी नहीं मदिरा है मदहोश करने वाली बाहें होती हैं इसकी, जो भी इससे आलिंगन करता है बस इसी का दीवाना हो जाता है।" महेश ने हंसकर कहा, विलायत में तो इसका फैशन है, अंबू.. मै तुझे एक बात बताना चाहता हूं।" अंबिका को महेश के मुंह से अंबू सुनकर ऐसा लगा कि महेश अभी उससे प्रेम का निवेदन करेगा। जैसे पलभर में उसे बरसों की पूजा का फल मिल जाएगा। अंबिका ने शर्माते हुए कहा, बोलिए महेश बाबू...।"


बहूत सून्दर है तू.. अंबिका जाकर पलंग के पास खड़ी हो गई, दिल की तेज गति से चलने के कारण उसका चेहरा कुमकुम की तरह लाल हो गया "अंबू बहूत सून्दर है तू...। दुनियावालों से बचाकर रखना अपनी सुन्दरता नहीं तो नजर लगा देगें तुझे, समझी पगली।" महेश के मुंह से तारीफ उसे अच्छी लग रही थी, उस लग रहा था, शराब से धुत आंखों से भी उसके स्वामी ने उसे निहारा जिनके लिए वह सुबह से सज-धज रही थी। महेश ने फिर शराब में धुत होकर अपनी आपबीती बताना शुरू की "अंबू... शराब से कब मेरा रिश्ता बन गया पता नहीं चला।
विलायत में जाने के बाद वहां का रंग ढंग मुझे अच्छा नहीं लगता था, सिर्फ पढ़ाई करना ही मेरी दिनचर्या थी कॉलेज में टॉपर था मैं," यह कहकर महेश खुलकर हंसा, "हा... हा...।" "क्यूं हंस रहे हैं आप, यह तो अच्छी बात है।" अंबिका ने महेश पर गर्व करके कहा,। "तू पगली है... अंबू , कॉलेज में डॉली नाम की एक लड़की थी। मुझसे एक साल जूनियर थी।' महेश ने कहा, यह सुनकर अंबिका का चेहरा गुस्से से लाल हो गया उसने कहा, 'आप क्या कह रहें हैं...?", 'सच कह रहा हूं अंबू, कब मैँ उस डॉली का दीवाना हो गया, जिसने मुझे धोखा ही नहीं मेरा खुद से विश्वास उठा दिया,मेरा सब कुछ छीन लिया..., सब कुछ... उफ...।" यह कहकर महेश की आंख लाल हो गयी। "आप रो रहे हो महेश बाबू।" अंबिका ने महेश को सांत्वना देते हुए कहा, "वह विलायतनी आपके लायक नहीं थी, कमबख्त... भगवान उसका भला कभी न करेंगे देखिएगा। " अंबिका ने गुस्से से कहा, "उसी चुडै़ल के वजह से आप शराब पीने लगे... हो... जरा सी भी हमारी याद नहीं आई...।" अंबिका ने डॉली से जलन को छुपाते हुए और महेश पर पूरा हक जताते हुए कहा," अब आप शराब नहीं पीएंगे।"  "क्यूं न पीऊं , शराब तो मेरी सबकुछ है।" महेश ने चिड़चिड़ाते हुए कहा "बस! महेश बाबू बहुत हो गया, नहीं सुन सकती मैं आपकी हार की कहानी और न अब आप कभी शराब को हाथ लगाएंगे।" अंबिका ने झगड़े वाले स्वर में बोला। तभी महेश ने कहा," क्यूं अंबू किस अधिकार से तू मुझे शराब पीने को रोकती है बोल, कौन है तू मेरी...? चुप क्यूं है बोल?" यह सुनकर अंबिका के सपनों का महल ऐसा टूट गया मानों जैसे छोटी चिंगारी ने पूरी बस्ती को जलाकर राख कर दिया हो।
अंबिका टूटा दिल लेकर नीचे चली गयी। महेश भी पूरा दिन कमरे में ही रहता और अंबिका नीचे घर का काम करने मे व्यस्त थी। और दोनों की दिनचर्या उस दिन के बाद से यही हो गई थी। महेश दिन भर कमरे में पड़ा... पड़ा शराब पीता और अंबिका घर का सारा काम काज करती। ऐसे करते करते न जाने कितने दिन बीत गए और फिर एक रात करीब १२:३० बजे तड़... तड़... तड़कने की गूंज से पूरा घर हिल गया, चारों तरफ अंधेरा, ही अंधेरा था, बादलों के बीच में कड़कती बिजली आज रात कुछ होने की सूचना अंबिका को शायद दे रही थी। "अरे बाप रे, बाप! इतनी तेज से बारिश। बिजली भी चली गई क्या करूं मैं," अंबिका हड़बड़ाते हुए उठी। "अरे, दादी मां और मौसी के कमरे में लालटेन जला दूं' अपने मन में ये सोचती हुई अंबिका अपने खटिया के बगल में छोटी से मेज पर रखी लालटेन को वहीं पड़ी माचिस से जलाकर भीगती हुई इस पार से उस पार तक जाकर दादी के कमरे में लालटेन रखने लगी।

"ऐ... छोकरी जाकर महेश के कमरे में उजाला कर आ, बिचारा अंधेरे में परेशान होगा।" अंबिका को जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गयी वह भी अपनी प्रियतम का चेहरा देखने को कब से बेचैन थी। पूरे दिन वह जब काम करती तो महेश या तो कमरे में रहता या गली में मिश्रा जी के घर अपने दोस्त रमेश के साथ शराब पीने में मस्त रहता। खाने पीने का होश उसे कहां रहता, अंबिका पूरे दिन भूखी ही रह जाती कि रात को जब उनका चेहरा देखूंगी तब ही व्रत तोडूंगी। लेकिन ऐसा न हो पाता। इस तरह एक हफ्ते बिना, कुछ खाये-पीये बीत गए। अंबिका सूख कर कांटा हो गई लेकिन महेश को इसकी खबर ही कहां थी। लेकिन उस भयानक रात में मौसी के मुंह से यह सुनकर अंबिका के अन्दर न जाने कहां से ऊर्जा आ गई और वह माचिस की तीली जलाकर आंगन से बाईं ओर की सीढ़ी पर चढऩे लगी जहां महेश का कमरा था। "ठक-ठक", "अंबू अन्दर आ जा।" महेश ने गम्भीर होकर कहा "मौसी ने कहा था कि आपके कमरे में रोशनी कर दूं।"
यह कहते हुए अंबिका ने अंधेरे कमरे में माचिस जलाई, जिसकी रोशनी में महेश ने बारजे से खड़े होकर उस मुखड़े को देखा जिसे देखकर उसे ऐसा लग रहा था कि अंधेरे में सूरज ने निकलकर रोशनी कर दी है। दोनों एक दूसरे को देखते रह गए। तभी अंबिका का ध्यान लालटेन पर गया, और लालटेन जलाकर  जाने लगी तो अचानक उसकी नजर बारजे में लडख़ड़ाते महेश पर पड़ी। वह दौड़कर महेश को पकडऩे लगी। "गिर जाएंगे आप! आपको पता है कैसे हो गए हैं आप, क्यूं करते हैं आप ऐसा? आपको कुछ हो जाएगा तो मेरा...।" यह कहकर दुबली-पतली अंबिका फूट-फूटकर रोने लगी " तू तो ऐसे रो रही है जैसे मैं मर गया महेश ने दबदबाते स्वर में बोला। "राम, राम, राम मार डालेंगे आप मुझे...।" अंबिका ने सिसकी लेते हुए कहा। महेश अंबिका के हाथ से बोतल छीनकर पीने की कोशिश करने लगा, और अंबिका रोकने का प्रयास करने लगी। अचानक बारिश और तेज होने लगी कड़ाक-कड़ाक, तड़ाक-तड़ाक बिजली की तेज आवाज ने महेश को काबू से बाहर कर दिया, उसने बोतल ने देने पर अंबिका के सिर पर बोतल छीन कर प्रहार कर दिया जिससे अंबिका की मांग खून से लाल हो गई।
अंबिका अवाक होकर महेश को देखने लगी खून की धारा एकदम सिन्दूर के समान चमक रही थी। अंबिका ने सामने सिंगारदान में खड़ी अंबिका को सुहागन देख रही थी जो उसे हमेशा महेश की नौकरानी कहती थी वह आज उसे सुहागन देखकर चुप थी। "यह क्या किया आपने महेश बाबू, आपको पता है इसका मतलब।" अंबिका ने रोते हुए कहा। "मुझे सब पता है...।" यह कहते हुए महेश जमीन पर गिर गया और अंबिका बहती मांग का खून पोछना भी नहीं चाहती थी उसके खून से वो पीली साड़ी लाल रंग में तब्दील हो गई। अंबिका ने अपने स्वामी को ठीक से बिस्तर पर लेटाया। और दौड़ते हुए नीचे जाने लगी कि कहीं कोई देख न ले।
दूसरे दिन सोमवार की उजियारी सुबह थी चारों तरफ सूरज की रोशनी ने अपने पैर पसार लिए थे। अंबिका भी अपने आपको सुहागिन मानकर खुश थी " चाहे पल ही भर क्यों न हो, मैं खुश हूं, बहुत खुश, मेरी पूजा का फल मिल गया।" वह सुबह उठकर नुक्कड़ वाले मन्दिर में शिव जी के सामने दिया जलाने गई, मां को सिन्दूर भी चढ़ाया, अंबिका बहुत खुश थी। " आज मैं महेश बाबू के मनपसंद पोस्ते की खीर बनाऊंगी, और अपने हाथ से खिलाऊंगी" यह सोचते हुए वह खूबसूरत दुबली पतली अंबिका घर को चलने लगी तभी अचानक उसके कदम रूक गए "यह क्या...? कार और तांगा दोनों एक साथ दरवाजे पर कौन आया होगा? कहीं वो... नहीं, नहीं...।"


डॉली मेम का इंतजार अपने मन को चाबुक से मारते हुए वह अन्दर गई तभी आंगन में एक मोम के समान गोरी मेम कुर्सी पर बैठी थी साथ में बहुत सारे विदेशी लोग उसके पास खड़े थे। अचानक उसकी नजर एक अधेड़ उम्र के युवक पर पड़ी जो खाट के बाईं ओर जमीन पर बैठकर मौसी का पैर दबा रहा था। " ऐ! छोकरी कितनी देर तक पूजा करती है। भगवान का सारा आशीर्वाद जैसे तुझे ही मिलेगा, जाकर चाय-पानी का बंदोबस्त कर।" दादी ने रॉब दिखाते हुए कहा अंबिका की आंखें लाल हो गई वह सिर झुकाये जाने लगी।
"अरे! सुन जाकर महेश को बता दे कि डॉली मेम उनका बेसब्री से इंतजार कर रही हैं।" दादी ने उससे  कहा, तभी मौसी ने बीच में मजा लेते हुए कहा, " अरे दादी! इसको क्यों ऊपर भेजती हो यह होती कौन है? मैं ही डॉली मेम को ऊपर महेश बेटा के कमरे में छोड़ आती हूं।" मौसी ने चालाकी के स्वर में बोला, " तू-नीचे रह, खाना-पानी तैयार कर मेहमानों के लिए, नौकरानी कहीं की।" मौसी डॉली मेम को लेकर ऊपर मेहश के कमरे से लगी सीढ़ी पर चढऩे लगीं। अंबिका डॉली को देखते हुए अपने भोले नाथ को याद करके रोने लगी। "आज ही तो मैंने सोलह सोमवार का उद्धापन किया उसका फल यह, नहीं.... प्रभु।" अंबिका चौके में जाकर खूब रोने लगी तभी उसके कानों में आवाज आई "क्यूं श्यामू माली पसंद आई छोकरी शादी तय समझूं न!"
दादी ने श्यामू से पूछा। श्यामू माली वही है जिससे मौसी अंबिका की शादी तय कर चुकी थी। "अरे माई पूछना क्या है?, मैं तो आज ही इसे ले जाने आया हूं, बस! आप और मौसी आशीर्वाद दें।" श्यामू माली ने लोभी के स्वर में बोला। यह सुनकर अंबिका के हाथ से चाय की प्याली गिर कर टूट गई। "क्या तोड़ा" दादी ने कहा, "बड़ी कमबख्त है...।" अंग्रजों को उनकी भाषा समझ में न आई वे मुस्कुरा कर रह गए। बस तभी अंबिका खुद को कोसते हुए चाय, समोसा लेकर आंगन मे आई। अंग्रजों के साथ वह श्यामू माली उसे लालच की नजरों से देखने लगा लेकिन अंबिका उस रात से सिर्फ महेश की हो गई थी उसका शरीर जरूर आंगन मे था लेकिन मन महेश के पास था। तभी ऊपर से चप्पल की खट-खट करके नीचे उतरने की आवाज आई।
अंबिका ने पीछे मुड़कर देखा महेश के साथ गोरी मेम और मौसी नीचे आ रहे थे "क्यूं रे अंबू मेहमानों को ऊपर के कमरे तक ले जाते हैं क्या!" महेश ने गृहस्वामी की तरह बोला, " यह क्या इन्हें नाश्ता पानी कराके बाहर का रास्ता दिखाओ।" "अरे बेटा यह डॉली मेम इस घर की बहू बनना चाहती हैं तेरी सहेली हैं, विदेश में मिले थे तुम दोनों। सब बताया है इन्होंने मुझे। " दादी ने धीरे से बोला, नहीं दादी.. आप गलत सोच रहीं हैं  डॉली सिर्फ मेरी क्लास में पढ़ती थी, बस! हमारा कोई रिश्ता नहीं है। महेश ने समझाते हुए कहा, " महेश आई एम वैरी सौरी, एंड आई डोंट वान्ट टू डिस्टब योर लाइफ, अम्बिका इज रिएली ब्यूटीफूल एण्ड ओनली मेड फॉर यू।" डॉली ने महेश से बोला, " थैंक्यू डॉली" महेश ने मुस्कुराते हुए कहा।
अंबिका सिर झुकाए रो रही थी तभी डॉली मेम अंबिका के पास आईं और बोला, " महेश इज ओनली योर। " अंबिका को अंग्रेजी समझ में न आई लेकिन वह डॉली के भावों को समझ गई और दोनों गले लग गईं। सभी लोग चुप थे, डॉली अपने पेरेन्ट्स को समझाकर कार से चली गई, महेश चुपचाप कमरे में जाने लगा। " अंबू... आज चाय पीने और पौस्ते की खीर खाने का मन कर रहा है आज यही बनाना।" तभी "छोड़ दो मुझे महेश बाबू...।


मेरी परिणिता हो... बचा लीजिए... अपनी अंबू को।" महेश के कदम अपनी अंबू सुनकर अचानक पीछे की ओर मुड़कर रूक गए, महेश ने देखा कि श्यामू माली अंबिका का हाथ खींचकर ले जा रहा था, दादी और मौसी चुपचाप खड़ी हंस रही थी, उस पल महेश को ऐसा लगा कि वह अगर आज कुछ न कह पाया तो शायद कभी न कर पाएगा उसे लगा कि कोई उसकी दुनिया छीन रहा है। "अंबू... तुम मेरी हो, मेरी हो , कोई नहीं छीन सकता तुम्हें मुझसे।" यह ख्याल बार-बार महेश को उसकी ओर बढ़ा रहे थे, अंबिका का आंसू अपने प्रेम को बयां कर रहा था तभी महेश ने श्यामू को धक्का देते हुए कहा कि "तुझे घर की मालकिन को छूने की हिम्मत कैसी हुई।" "मौसी ने इससे मेरी शादी तय कर दी है इसे मैं ले जाने आया हूं, आज से यह मेरी पत्नी है। दूर हठ जा शराबी।" श्यामू माली ने झगड़े के स्वर में बोला।
यह सुनकर महेश ने मौसी को तरेर कर देखा और श्यामू को खींचकर एक थप्पड़ रसीद कर दिया। "तुझे पता है, यह कौन है, मौसी कौन होती है, इसका विवाह तय करने वाली यह मेरी परिणिता है।" महेश ने पास रखी अंबिका की पूजा की थाली से सिन्दूर निकालकर उसकी मांग भर दी। "अंबू तू मेरी परिणिता हो... मेरी परिणिता हो...।" यह देखकर दादी ने कहा, "यह क्या किया निक्कमे नौकरानी को महारानी बना दिया।" "मेरी दादी, यही तुम्हारी असली बहू है। इसने मेरी अनुपस्थिति में इस घर को ही नहीं तुम्हें भी संभाल है वरना यह मौसी तुम्हें सड़क पर ला देती। यह गंवार जरूर है पर फैसले पढ़े लिखों से ज्यादा सही करती है। मेरी खुशी है अंबू... मेरी जिंदगी है अंबू... यह अब तुम्हारी बहू है।"
महेश ने खुश होकर कहा, " मैं हमेशा से सिर्फ इसी से प्यार करता था और यह भी मुझसे प्यार करती थी पर आपके डर से कभी कहा नहीं, अपना लीजिए इसे दादी।" महेश ने जिद करते हुए कहा। " तेरी खुशी में ही मेरी खुशी है।" दादी ने अंबिका को देखते हुए कहा। " अरे श्यामू तू यहां क्यों खड़ा है भाग यहां से, अरे! तेरा तांगा खाली जाएगा ऐसा कर तू मौसी को भी साथ लेता जा, बिचारी कई बार जाना चाहती  थीं लेकिन दादी की वजह से नहीं जा पाईं। क्यों मौसी ठीक है न।" , महेश ने गुस्साते हुए कहा। "नहीं दादी मैं नहीं जाऊंगी, मैं यहां ठीक हूँ।" ,मौसी ने गिड़गिड़ाते हुए कहा। मौसी ऐसा कहता हुए दादी के पास आई, परंतु दादी ने मौसी की असलियत जानकर उससे मुंह फेरते हुए दूर खड़ी अंबू के पास गई।
मौसी को अंत में मजबूर होकर श्यामू माली के साथ तांगे में बैठकर जाना पड़ा। "अरे बहू..." यह सुनते ही अंबिका की आंखों से पानी गिरने लगे और उसने दादी के पांव पर अपना सिर रख दिया, दादी ने भी उसे प्यार से गले लगाकर कहा, " तू सच में बहुत सुंदर और गुणवान है, ये तो महेश की मौसी ने मेरे कान तेरे खिलाफ भर दिए थे और मैं उसकी बातों में आकर भटक गई थी..., मुझे माफ कर दे...बहू।" दादी ऐसा कहते हुए अम्बिका के पैर पडऩे लग गई। "नहीं दादी, मुझपर पाप चढ़ाएंगी क्या? मेरी जगह आपके कदमों में है?" अंबिका ने रोते हुए कहा। तभी महेश ने भी कहा "तुम्हारी ही नहीं, हमारी जगह दादी के कदमों पर है।" महेश ने अंबिका के साथ झुककर दादी का आर्शीवाद लिया, दोनों एक दूसरे को पाकर खुश थे जैसे चांद और चांदनी का वर्षों बाद मिलन हुआ हो महेश अंबिका को प्यार से देखकर मुस्कुराया और अंबिका शर्माते हुए झुक गई।
तभी दादी ने कहा, "सदा सुहागिन रहो। खुश रहो, तुम्हारी जोड़ी अमर रहे दूधो नहाओ, फूलो फलो और ये आंगन बच्चों की किलकारी से भर दो।" यह सुनकर अंबिका शर्माते हुए हक से महेश के कमरे में गई और सिंगारदान में खड़ी अंबिका से ऐंठ कर बोली, "आज पता चला तुझे प्यार दुनिया की हर ताकत से बड़ा होता है, सच्चा प्यार कभी नहीं हारता, मुझे मेरी पूजा का फल मिल गया मुझे महेश बाबू मिल गए, मेरे स्वामी मिल गए। मैं उनकी परिणिता हूं...मैं परिणिता हूं...।"  तभी महेश ने कमरे में प्रवेश किया और अंबिका ने सिर पर पल्लू रखकर महेश का पैर छुआ। महेश ने प्यार से उसे सीने से लगाकर कहा, "मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूं अंबू...।" अंबिका ने लजाते हुए कहा, "मैं भी स्वामी।" 



(This story is taken from internet. I posted as I like it very much. It was something which touched my heart. My special thanks to the original writer.)

Thursday, 11 November 2010

Blog account blocked *(Day-13)

I did not get a chance to write yesterday so I will write two times today. Yesterday was just like any other day. In the afternoon i find out that my account has been blocked. Which infact is my mistake. I purposefully in order to inflate the earnings I clicked on the ads myself.

I forgot to realise that since google is in the business of advertisement for so long that it must have figured these kind of common pitfalls by the bloggers. Anyway now I dont care about the advertisement any more. For me as the title says, is a channel to express my views.

This is the blog just to vent out the feelings. I am preparing other blog for commercial purpose.

Tuesday, 9 November 2010

Spanish Visa Experience (Day-12)

Today I did not wake up as plan. There was a slight mistake. I set the alarm at 6:50.. instead of AM I set it to PM. So I wake up at 7:22 AM. Still thinking it was enough time as I already prepared last night. I reach the Sloane Square at right time. However  I was not sure of the route. When I saw the watch it was 9:25 AM. Somehow I was praying god give me a Cab. As the luck would have been just a empty cab came and I got into it as fast as I can. The British driver in Indian style took a U turn and was able to reach the Counsulate in 5 minutes. There I was at 9:30 in front of Visa office.

After necessary security checks, I got into the office and filled the forms. He asked me many questions and then finally asked me to deposit the money. There was some confusion in the begining but in the end the visa officer asked me to deposit 50.40 GBP in the cashier.

After that came to the visa officer. He took the documents with little bit if asking here and there.
I am not really sure whether I will receive the visa or not. He asked me to come over to collect on Friday 1:30 PM.
Let us see how it turns.

Moral : One thing, no matter how much do you prepare, there will always be some unexpected events so do not be baffled by these all stuffs.  You can always reduce bit more after bit more preparation.

Bluemango

Sunday, 7 November 2010

Homelessness in US

Last thursday (Nov 4) I participated in Press TV program on "Homelessness in USA". It was my first time to a studio. It was quite amazing experience. From a distance things seem like our of the world creation but when you see it from a close anle you realise it that it is not that great.

Anyway let us talk about the main topic. There were many points discussed which were quite relevant and valid. However I still wonder US is one of the country which donates a huge amount of money in charity and causes abroad. As we all agree that US is having all the resources from conception to design to tackle homlessness. Inspite of that there are over 1.5 million homeless people in US.

How can we justify millions of dollar in charity abroad and still turning a blind eye to its own people. It clearly shows a lack of will on the part of Washington. One of the primary most reason cited was lack of affordable housing. In Newyork city there were about 51,000 people homeless.

Intrestingly these numbers are growing and most of the growth is coming from the females. Also there is increasing number of  homeless couple as well. On the otherhand there is not many homeless in UK. The primary reason is differences in their economic structure.

However if we these numbers are nothing as compared to countries like india. One of the obvious reason is the huge population but other is simply the more tolerant tropical climate. I mean the climate is in between neither too hot like Arab countries nor too cold like US or Scandivian countries. At least one can survive with minimum clothing.

One of the most disheartening to me is the a dog gets a better treatment in first world country than a man. There are activist working for animal right. Is it humane to leave your fellow brother getting rotten in the street in much bad condition than a dog. I guess it is a big blot on the image of America. I agree there might be few people who has not any genuine desire to repossess a home but I am sure majority of them are victim because of the capitalistic nature of the society.

I think America is in a position to amend its constitution and include home as basic right, just like right of freedom of speech.

America you can do it! Wake up and be a role model for the world as you have been so far. World will respect you more if you take care of your own people before you step out of the American boundaries. Majority of homeless have genuine victim of the financial debacle.

I lived in America for about a year but I guess it is not enough to know about the real situation. Leave your comments in the bottom.

Bluemango

Saturday, 6 November 2010

Spanish Visa for a non-EU citizen

As it always, documentation for visas has always been very cumbersome. However fortunately as I have done myself all the visa documentation so now it does not feel that much tedious. Actually I developed a system, how to document so that every fine detail can be taken care of.

Documenting procedure:
  1. Buy a new leaflet folder with at least 20 leaves
  2. Print the visa requirement page (document link)
  3. Use stick on notes and assign each leaf for each of the requirement.
  4. Write all the necessary information on the note in front of the lead. 
  5. Then start filing the document in the sequence set by step 2.
Main Points:
  1. Bank Statements: Bank statement with your postal address showing of last three months are required. I am speaking for HSBC. The procedure might be little different for different bank. In HSBC it takes minimum of three working days to send your statement. Also you can not collect from the branch directly. It has to come from the back office. However while ordering on the phone you can choose where you wish to receive the statements. However if you wish to receive at your postal address then it will take minimum of 5 days.
  2. Overseas Medical Insurance (with repatriation provision): It is one of the main requirements. In the market there are several companies selling the similar products with little variations. I chose one to satisfy the bare minimum requirement for the visa purpose. I chose the BUPA International as it was giving me option to pay on monthly basis. My monthly charge come down to 65.89 GBP. After getting the membership you need to call to the customer service and ask for the document to be produced for the visa purpose. As they deal with these requests many times so they will understand.
  3. Confirmed return ticket: Unlike other places, here in UK travel agents does not entertain such requests. Some agents demanded 50GBP. Finally I chose to do it my self through Ryanair. It cost me 34 pounds.
  4. Confirmed accommodation:  Being a experienced traveller i chose to book in Hostel. It cost me only 3 pounds for two days booking. 
 Now visa does not feel like a burden as I use to feel it. I guess now I can handle any documentation.

If you have any question then let me know.

Regards
Bluemango