Sunday 14 November 2010

अनोखा रिश्ता - ( मेरी पहली रचना )


अनोखा रिश्ता - ( मेरी पहली रचना )

Day 16- London

(It is my first attempt on writing in Hindi. Sorry for any spelling mistakes. If you like/hate it please leave comments/suggestions in the end )

सुरेंद्र और रतनी जब अदालत से तलाक़ के कागाज़ो पर हस्ताक्षर करवाकर लौट रहे थे तो खुद को काफ़ी हल्का महसूस कर रहे थे | घर पर आने के बाद उनकी सबसे बड़ी समस्या थी - घर | घर मे कुल तीन कमरे थे | कुछ दिनों के लिए यह सोचा गया की दोनों एक-२ कमरा लेंगे और तीसरा कमरा बतौर ड्रॉयिंग रूम के दोनो इस्तेमाल करेंगे | रसोई खर्च और नौकर का वेतन भी दोनो लोग आधा-2 शेयर करेंगे |

दुलीचंद ने बेडरूम से एक पलंग हटाकर दूसरे कमरे मे रख दिया | जब सुरेंद्र अलमारी मे कपड़े जचा रहा था तो उसने संतुष्टि से कहा की शुक्र है भगवान का की हमने ऐसा पेचीदा मामला इतनी समझदारी और बिना कोई लड़ाई झगड़ा किए निपटा लिया | उधर रतनी भी खुश थी | उसने भी कपड़ो की तय करते हुए कहा की हम दोनो ड्रॉयिंग रूम की इस्तेमाल कर सकते हैं अपने दोस्तों और रिश्तेदारों के लिए |

झटकते हुए सुरेंद्र ने कहा क़ि तुम उन लोगों को अंधेरे मे रखना चाहती हो? सच्चाई छिपाना चाहती हो?"

"परंतु सभी को उजागर करने से भी तो कोई फ़ायदा नही है" रतनी ने तपाक से जवाब देते हुए कहा |

इधर दुलीचंद सुबह से ही बहुत परेशन नज़र आ रहा था | जब सहन नही हुआ तो हाथों पर सिर रखकर रोने लगा | " भगवान क़ि दया से मुझको जाने दो | इन हालत मे मै काम नही कर सकता |"

सुरेंद्र ने उसे शांत करते हुए कहा क़ि, " इससे तुमको क्या परेशानी है? तुम यहा कुछ वक्त तक रहोगे और उसके बाद तुम हम मे से किसी एक के साथ जा सकते हो"

"अच्छा ठीक है तुम मेरे साथ रहोगे" रतनी ने कहा |

सुरेंद्र ने बिना कोई चिंता फिकर किए पैर लंबे किए | क्या आराम है? बिल्कुल आज़ाद | ऐसा महसूस हो रहा था जैसे क़ि किसी जेल से छूट के आ रहा हो | किस को कुछ जवाब देने क़ि देने की ज़रूरत नही की कब आ रहा कब जा रहा है , कहाँ जा रहा है |

घर -ग्रहस्थी क़ि सभी ज़िम्मेदारीओं से बिल्कुल मुक्त | बिल्कुल एक आज़ाद पन्छी क़ि तरह | सोच रहा था क़ि किस चीज़ ने उसको इतना कमजोर बनाया | क्या वो वही सुरेंद्र नही था जिसने एक वक़्त रतनी से शादी करने के लिए समाज क़ि सारी परम्परायें तोड़ डाली थी |

इधर रतनी भी अपने पैरों पे खड़ी होने के बिल्कुल काबिल थी | जब जीवन साथी से किसी प्रकार क़ि कोई आशा नही हो तो चिपकना किस लिए | वो भी अब बिल्कुल हल्का महसूस कर रही थी | तैयार थी अपनी खुद क़ि पहचान बनाने के
लिए |

रात का खाना दोनों कमरों मे लाया गया | सुरेंद्र तो खाना खाने के तुरंत बाद सो गया पर रतनी रात भर करवटें बदलती रही |

अगले दिन सुरेंद्र ताला बंद करके तुरंत निकल गया | ऐसा गया क़ि पूरे तीन दिन बाद लौटा | रतनी अपने दिनचर्या के हिसाब से स्कूल जाती और रोज़ शाम को आ जाती , बिल्कुल एक आग्यकारी ग्रहणी क़ि तरह | उसको अब पहले क़ि तरह अपने मायके जाने क़ि भी ज़रूरत महसूस नही हुई | पहले तो उसने बंद ताले को अनदेखा करना चाहा पर जब रहा नहीं गया तो उसने दुलीचंद से पूछा लेकिन सुरेंद्र उसको भी कुछ बता के नही गया था |

चौथे दिन लौटते से सुरेंद्र सीधे अपने कमरे मे चला गया | वो बस बैठा ही होगा क़ि रतनी दरवाज़े पर आकर खड़ी हो
गयी |

तुरंत सिर हिलाते हुए सुरेंद्र ने कहा ….ना ना ना … अब नही चलेगा पहले क़ि तरह … अब मेरे को सफाई देने की कोई ज़रूरत नही है |

"तुम मेरे को बिल्कुल ग़लत समझ रहे हो | मै बिल्कुल अलग चीज़ के लिए आई हूँ | दरअसल मेरे को तनख़्वा मिलने तक पचास रुपये उधार चाहिए | जैसे ही मेरे को पहली तारीख को तनख़्वा मिलेगी मै तुरंत लौटा दूँगी |"

रतनी को पचास रुपये देते हुए उसने दुलीचंद को आवाज़ दी, "सुनो मै कुछ करेले लेकर आया हूँ | पकाओगे ना तुम? "

इस पर रतनी ने कहा क़ि इसको कल पका लेंगे | काफ़ी कुछ पहले से ही बना रखा है | मेरा मतलब है जब दोनो शेयर कर ही रहे हैं तो इसको भी कल आधा आधा कर लेंगे |

सुरेंद्र ने दारू क़ि बोतल निकाली और सोफे पर पालती मार के बैठ गया | दुलीचंद इशारा अच्छी तरह समझता था| बिना कुछ कहे उसने भुना हुआ मुर्गे का गोस्त उसके सामने रख दिया |

कुछ देर बाद, रतनी फिर दुबारा से आई | "पति -पत्नी न सही, क्या हम दोस्तों क़ि तरह नही रह सकते? मेरा मतलब कुछ सभ्य ढंग से"

"तुम अपना ठिकाना कहीं और क्यों नही ढूंड लेती |" पलटकर सुरेंद्र बोला |

"बात ये नही है | मेरे मतलब मै तुमको इस तरह से पी पीकर मरते नही देख सकती"

किसने तुमको देखने के लिए कहा है? तुम खुद अंदर आई हो |"

छीनकर रतनी ने बोतल अलमारी मे रख दी और बड़ी अदा से अपने कमरे मे चली गयी | उसके जाने के बाद सुरेंद्र क़ि हिम्मत्त नहीं हुई क़ि बोतल को फिर दुबारा से हाथ लगाए |

दिन ऐसे ही बीतते गये और पता ही नही चला क़ि तलाक़ के बाद चार महीने कैसे गुजर गये | इस दौरान काफ़ी कम समय के लिए ही आमना-सामना हो पाता था | या तो दुलीचंद के पास हिसाब करते वक़्त या सुभह बाथरूम जाते
वक़्त | और अगर ग़लती से भेंट हो भी जाती तो थोड़ी बहुत रतनी के स्कूल या सुरेंद्र के कॉलेज के बारे मे ही बात होती थी, केवल औपचारिकता बतौर |

एक दिन अचानक सुरेंद्र ने महसूस किया की रतनी पिछ्ले कुछ दिनों से कमरे से बाहर नही निकली है| उसने देखा की मिलने वालों का ताँता लगा हुआ था | वो सब औरतें उसके साथ स्कूल मे पढ़ाने वाली साथी टीचर्स थी |

दुलीचंद से पूछने पर पता चला की रतनी बीमार है | वो खुद तुरंत कॉलेज से आने के बाद सीधे रतनी के कमरे मे गया | उसका शरीर बिल्कुल पतला हो गया था मानो उसमे कोई जान ही बाकी ना हो | खाली हड्डियों का एक ढाँचा |

दुलीचंद पहले ही डॉक्टर को बुला लाया था और कहे अनुसार दवाइयाँ भी ले आया था | सुरेंद्र किताबों की अलमारी के पास खड़ा हो गया | किताब के पन्ने पलटते हुए कहा की एक दोस्त की हैसियत से मै यह तो पता कर सकता हूँ की तुम्हारे पास पैसे हैं की नही? और जवाब का इंतजार किया बगैर दुलीचंद को बुलाकर कुछ फल और रतनी की ज़रूरत की चीज़ें लाने को कहा |

उसने रतनी को इतना असहाय कभी नही देखा था |

इसी तरह दो महीने और बीत गये | न तो सुरेंद्र ने घर बदला, ना ही रतनी ने दूसरा घर तलाशने की कोशिश की | एक दिन दुलीचंद ने घर जाने के लिए रतनी से एक महीने की छुट्टी माँगी और घर चला गया |

स्कूल से लौटते वक़्त, रतनी ने खुद के लिये चाय बनायी और जब देखा की सुरेंद्र भी आ गया तो दो चाय के लिये पतीले मे पानी चढ़ा दिया | वो किताब पढ़ने मे लीन था और कप हाथ मे लिया, बिना ध्यान दिए की चाय कौन लेकर आया है | रतनी खुश थी और कुछ देर तक खड़ी होकर ध्यान से सुरेंद्र को देखती रही | फिर किताब छीनते हुए " श्रीमान बेहतर होगा की आप पहले चाय पी लें | "

सुरेंद्र एकदम खड़ा हुआ, " तुमने चाय बनायी? क्यों?" हाँ मैने, दुलीचंद छुट्टी पर चला गया है इसलिए | रतनी हँसी और खाना पकाने रसोई मे चली गयी | कुछ देर बाद वो वापस आई और कहा, " क्या मेरी मदद करोगे? पुराने दिनों की तरह?"

"पुराने दिनों? क्या मतलब है तुम्हारा? हम आज मे हैं और हमको आज की ही बात करनी चाहिए | "

"कभी-२ तो पड़ोसी से भी लोग मदद माँगते हैं |"
उसके खुले लंबे कालें बालों मे एक अलग ही मादकता भारी हुई थी|
बालों को अदा से छिटकते हुए फिर वापस रसोई मे चली गयी | साङी का पल्लू कंधों से नीचे खिसक चुका था पर रतनी ने ठीक करने की ज़रूरत नही समझी | सुरेंद्र का दिल तेज -२ धड़कने लगा | वो रसोई मे गया और रतनी की गर्दन पे एक चुंबन अंकित कर दिया, पता नहीं किस अधिकार से | इधर रतनी बिल्कुल शांत खड़ी रही | सुरेंद्र को खुद पे गुस्सा आया की उसने ऐसा क्यों किया, पछ्तावा हो रहा था | और तुरंत आकर सोफे पर बैठ गया |

कुछ देर बाद रतनी आई, सर झुकाया और सुरेंद्र को बाहों मे जकङ लिया | सुरेंद्र ने एक अपराधी की तरह छूटने
की कोशिश की परंतु गिरफ़्त इतनी मजबूत थी की खुद को रतनी से छुडा नही सका |

रतनी ने धीरे से कान मे कहा की मैने दरवाजा बंद कर दिया है |

"और खिड़कियाँ " सुरेंद्र बड़ी मुश्किल से बोला |

इस तरह तलाक़ के चार साल बाद भी दोनों साथ हैं ना जाने किस रिश्ते की पनहा पे |

(Thanks for taking time to read my first attempt. Kindly leave comments/suggestions. Sorry for the any spelling mistakes. It is difficult in writing in Hindi when you dont have the Hindi keyboard.)

Bluemango

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