सोमवार की ओम् स्वर से गूंजती, वह सुबह। जो हमेशा की तरह पवित्रिक और ओजस्वपूर्ण वातावरण से पूरे हरिद्वार को महका रही थी पर कहीं न कहीं उस रोज किसी के आने की कशिश ने अंबिका के दिल में उस वातावरण को और सुंगधित कर दिया था जितनी महक तो शायद असंख्य फूलों और अगरबत्तियों के मिलन पर भी न हो। उस दिन पूरे रोज अंबिका ने महेश के इंतजार से खुद के संवारना और निखारना ही अपना उद्देश्य समझा था जैसा वह उसे देखना चाहता था। छोटी दादी और कानपुर वाली मौसी की सेवा करते-करते भी वह इतना न थकी होगी। जितना उस रोज महेश के लिए पकवान बनाते-बनाते उसके हाथ थक गए थे..............
तब भी उसके माथे पर रंचमात्र भी थकावट की लकीर नहीं थी क्योंकि उसके पसीने की एक-एक बूंद को महेश के याद में बह रही बयार अपने साथ बहुत दूर उड़ा ले गई थी। घर की साफ-सफाई, फूलदान में ताजा गुलाब के सुर्ख फूल लगाने, छत पर सूखने को पड़े लाल मिर्च को इक्कठा कर के नीचे बरामदे में लाना, चौका-बर्तन करना, यहां तक कि पहली मंजिल पर बारजे से लगा महेश का कमरा जिसकी साज-सज्जा करना मानों अंबिका का धर्म था,उस दिन वह सभी कार्य जल्दी-जल्दी कर रही थी। पलंग के एक कोने से दूसरे कोने तक तनी सफेद चादर जिसमें अंबिका द्वारा कढ़ा लाल गुलाब मानों ऐसा लग रहा था कि जैसे दुधिया आकाशगंगा में कोई ग्रह लाल सागर से नहाकर तुरंत निकल आया हो। जिसे देखकर बाकि सब ग्रह ईष्यांवित हो रहे हों। " पलंग के बगल मैं तो सिंगारदान में इत्र रखना ही भूल गई। कितनी भारी गलती हो जाती मुझसे बाप रे बाप!", अंबिका के मुंह से तपाक से निकल पड़ा। उस दिन न जाने कितना कुछ उसके मुंह से निकल रहा था, जो होंठ हमेशा 'जी, हां जी, आई मां' जैसे शब्दों से ही हिलता था, वह उस रोज घड़ी की सुई की तरह टक-टक बज रहा था। महेश के कमरे को सजाना ही उस दिन उसका परम कत्र्तव्य था क्योंकि महेश को सफाई बहुत पसंद थी, " उनकी अलमारी में कपड़े करीने से तह होकर रखें हैं कि नहीं 'जरा, देख लूं नहीं तो महेश बाबू का ज्वालामुखी समान गुस्सा कौन झेलेगा, गहरी नीली रंग की चेक की शर्ट, उनकी सबसे प्रिय सहेली और मेरी सौतन, उसको रामू काका के यहां से प्रेस कराकर अच्छा हुआ आज ही मैं ले आई, शुक्रिया मातारानी! अब ठीक से उसे हैंगर में लगाकर टांग दूं।" अंबिका के मुंह से निकला। उसने जल्दी-जल्दी पूरा कमरा साफ किया खिड़की के परदे उसने कल ही बदले थे। महेश की रीडिंग टेबल पर घड़ी, कलम और फतेहपुर वाली उनकी दूर की मामी द्वारा दी गई काली डायरी के साथ आज का अखबार उसने ठीक से रख दिया। अब जाकर चैन आया उसे, "पूरा घर साफ हो गया।", तभी उसकी नजर सिंगार दान में खड़ी अंबिका पर पड़ी जो उसे अपनी ओर खींच रही थी, उस अंबिका नें बोला "क्यूं रे अंबू ...
धरती और आकाश का मिलन
किस अधिकार से तू महेश का इन्तजार कर रही है? उसका कमरा साफ कर रही है। क्या लगता है वह तेरा? औकात क्या है तेरी इस घर में, किसके लिए सजी धजी है तू? धरती और आकाश का मिलन कभी नहीं होता अंबिका! संभाल ले तू अपने आपको... वो पढ़ा लिखा सुशील युवक है पेशे से वकील है और तू अनपढ़, जाहिल, नौकरानी है।" "नहीं... नहीं..." अंबिका ने दोनों कानों को आवेग से, हाथों द्वारा बन्द कर लिया और वह धप्प से जमीन पर बैठ गई "क्या सचम़ुच मैं कुछ नहीं उनकी, बचपन से जिन्हें पाने की प्रार्थना नुक्कड़ वाले शिव मन्दिर में हर रोज रो-रोकर की, मां गौरी को हमेशा मैंने सिन्दूर चढ़ाया कि एक दिन...। उफ! क्या ऐसा हो पायेगा...?" और बहने लगी अंबिका की आंखों से गंगा की धारा, जैसे बीच-बीच में किसी पत्थर के टकराने से धारा उच्च स्वर गुंजित करती हैं वैसे ही महेश की याद में अंबिका कभी-कभी तेज से सिसकी भी ले रही थी अपने मासूम प्रेम की भविष्य कि चिन्ता कर-करके। " अरे! कलमुंही सब्जी जल रही है।" नीचे बरामदे में बैठी महेश की छोटी दादी ने चिल्लाकर कहा। "आ रही हूं मां..." महेश उन्हें मां शब्द से संबोधित करता है। और अंबिका महेश का अनुसरण करना ही अपना धर्म समझती है। वे सीढिय़ों से चप्पल की तेज-तेज आवाज करते हुए नीचे उतरने लगी। "माफ कर दीजिए मां, कमरा साफ करने में देरी हो गई, अभी जाकर सब्जी उतार देती हूं।" अंबिका ने रूआंसे स्वर में बोला। "देख छोकरी! तू इस घर की नौकरानी है। गरीब दीनानाथ की बेटी है। जिसने हमारे पूर्वजों की बरसों सेवा की है। उसी का ख्याल करके हमने तुझे यहां रहने दिया। अपनी आस्तीन के अन्दर रहना सीख! बाहर निकलेगी तो तुझे हमेशा के लिए यहां से चला जाना होगा नौकरानी है तू नौकरानी...। रानी बनने का ख्वाब छोड़ दे लड़की।" धमकाते हुए छोटी दादी ने बोला। तभी महेश की मौसी ने बोला, क्यू दादी लड़की जवान हो गई है। ताड़ के पेड़ की तरह और बला की खबसूरत भी है। कुछ ऊंच-नीच हो गई तो!
घर में कोई है...? खूबसूरत लड़की ज्यादा दिन तक अपनी खूबसूरती से अपरिचित नहीं रह पाती, और न दूसरों से बचा के रख पाती है, कहो तो! अपने सुसराल में काम करने वाले श्यामू माली से बात चलाऊं। क्या हुआ उसके दो जवान लड़के हैं, बिचारे की बीवी दो साल पहले टीबी की बीमारी के कारण मर गई थी। घर में कोई काम करने वाले है नहीं। इसी कलमुंही से कहो तो बात चलाऊं वैसे भी कौन शादी करेगा इस गंवार से?" यह सुनकर अंबिका का दिल धक से रह गया " जाने! भगवान मुझ बदनसीब पर अब क्या दुख डालने वाले हैं। तभी अचानक...ठक-ठक...। 'घर में कोई है...? यह आवाज सुनकर अंबिका का पूरा शरीर ऐसे हिल गया जैसे किसी पेड़ को हवा के झोंके हिला देते हैं। अंबिका किचन से दौड़ती हुई बरामदे में ऐसे आई, मानों कोई चुम्बक उसे अपनी ओर खींच रहा हो। लेकिन छोटी दादी और मौसी को देखकर उसने अपने आपको बहुत मजबूती से रोक लिया, क्योंकि वे सही ही कहती हैं, कि एक अभागिन का चेहरा कभी भी किसी के सामने नहीं पडऩा चाहिए।
'क्या...? क्या मैं उनकी दुश्मन हूं" तभी अचानक मौसी बोली, " ऐ लड़की! जा देख कौन है?" अंबिका ऐसे दौड़ कर भागी जैसे उसे मुंह मांगी मुराद मिल गई हो। जिन लोगों ने उन्हें पाला है, वह उनकी आवाज पहचान नहीं पाए और मैं निरिख! कितना गहरा रिश्ता है, इस आवाज से मेरा, अंबिका मन में सोचती हुई आगे बढ़ऩे लगी कि "वह शांत किशोर एक सुदर्शन युवक हो गया होगा, विलायत से जो पढ़कर आ रहे हैं जनाब, पत्ता नहीं कैसे होंगे वगैरह-वगैरह"। ऐसे ख्याल उसके मन को आसमान की ऊंचाई को छूने को प्ररित कर रहे थे। अपने मन को रस्सी में बांधकर अंबिका ने दरवाजा खोला "आप...महेश बाबू...!" उस शख्स को देखते ही अंबिका जमीन में जा गढ़ी और आंख को पतझड़ बनाने की कोशिश में एक बारगी बाड़ सी आ गई उसकी आंख में जिसमें हिलता-डुलता, शराब में धुत, बिखरे बाल, खद्दर का कुत्र्ता-पैजामा पहने युवक ऐसा लग रहा था मानों उसमें धूल, मिट्टी ने अपना घर बना लिया हो, आंखों के काला गड्डे एक काले पानी के भंवर के समान लग रहे थे उसमें एक कमजोर युवक उसके सपनों का राजकुमार महेश बाबू का बिम्ब धुमिल दिख रहा था।
यह वही महेश बाबू हैं जो जेन्टल मैन बनना पसन्द करते थे वो आज ऐसे... हो गए होंगे। ये उसके सपने में भी नहीं सोचा था"। क्यूं रे अम्बू... पहचाना नहीं अपने महेश बाबू को...अन्दर आने को नहीं कहोगी...? महेश ने लडख़ड़ाते हुए बोला... अपना सुनकर अंबिका को जैसे भगवान मिल गए। उसने आंसू को साड़ी के किनारे से पोंछते हुए कहा, क्यूं नहीं... महेश बाबू मुझ जैसी नाचीज क्या ये गुस्ताखी कर सकती है, आइए अन्दर आइए... मां कबसे आपका इन्तजार कर रही हैं, मां... महेश बाबू आ गए।" बड़े हक से अंबिका ने अपना पूरा अधिकार महेश पर जताकर कहा, महेश को सहारा देकर अंबिका उसे मां के पास ले गई जिनकी बूढ़ी आंखें कब से उनका इन्तजार कर रही थीं "आ गए बेटा... कितने दुबले हो गए, विलायत में मन नहीं लगा, क्यूं आ गई न मां की याद ।", बूढ़ी दादी ने कहा। बिचारी मां उस बदले महेश को अपनी मोतियाबिन्द वाली आंखें से समझ ही नहीं पाई"। अंबिका ने दिल में कहा। उसके मन में छोटी दादी के प्रति कितनी दया थी। जो उसे कोसते रहना ही अपनी दिनचर्या बना चुकी थी। " मौसी प्रणाम... कैसी हैं आप? "
दादी की देखभाल महेश ने लडख़ड़ाते स्वर में बोला"। "बस, इस बार कानपुर जाने को सोच रही हूं, अब तू आ गया, दादी की देखभाल करने। मेरी क्या जरूरत, तेरे पीछे मेरे बिना और कौन देखभाल करता था।" मौसी ने महेश के बगल खड़ी अंबिका को आंख तरेरते हुए बोला। "न,जाने कितनी बार कानपुर जाने का प्रोग्राम मौसी बनाती और फिर न जाने का बहाना कर देती, यहां जो काम करने को नहीं मिलता।," ये सोचकर मन ही मन महेश हंस रहा था जिसकी झलक उसके होठों पर भी आ रही थी, जिसे बगल में खड़ी अंबिका ने पढ़ लिया था, "क्यूं हंस रहे हो महेश बाबू कुछ याद आ गया क्या ?" अंबिका ने मजा लेते हुए बोला।
"ऐ छोकरी ज्यादा मत बोलाकर महेश का सामान उसके कमरे तक पहुंचा दे और सुन काम से काम रखाकर तेरा छिछोरापन मुझे कतई भाता नही गंवार कहीं की" छोटी दादी ने गुस्साकर कहा, क्योंकि उन्हें अंबिका और महेश का खामोश प्रेम बिल्कुल गंवारा नहीं था, तभी उन्होंने चिल्लाकर अंबिका से कहा। वह रोते-रोते दौड़ती हुई महेश का सामान लेकर कमरे में जाने लगी। "अम्बु सुन मैं भी आ रहा हूं, सोचूं थोड़ा आराम कर लूं। खाना तैयार है न! गोभी आलू की सब्जी, और पालक का साग क्यूं..." महेश ने कहा, "जी महेश बाबू," ये कहते हुए अंबिका महेश का सामान लेकर सीढ़ी चढऩे लगी और महेश पीछे-पीछे, यह देखकर ऐसा लग रहा था कि मानो नवदम्पति अपने मिलन को जा रहे हों। नई दुल्हन सुसराल का संस्कार और नए रीति-रिवाज उठाने की कोशिश कर रही हो। "अंबू... बहुत सुन्दर लग रही हो आज, क्या बात है?" महेश ने बोला, यह सुनकर अंबिका ने झट से पीछे देखा। गड्डे में धंसी आंखे, काला थका चेहरा, बढ़ी-दाढ़ी, गन्दे मैले कपड़े मे भी कामदेव की सुन्दरता अनुपम लग रही थी। च्च्ये क्या कह रहे हैं आप, मैं कहां सुन्दर हूं आप जितनी। विलायत में झूठ बोलना भी सीख गए, महेश बाबू...।" अंबिका ने पूरा जोर लगाकर कहा। फिर उसने साड़ी के कोने में बंधी चाभी के गुच्छे से महेश के कमरे की चाभी ढूंढनी शुरू की जिसे ढूढऩे में इतना वक्त लगेगा, उसने कभी सोचा भी न था। शायद... वह कुछ पल और महेश के साथ खड़ी रहना चाहती थी फिर उसने धीरे से दरवाजा खोला और फिर संजोग से दोनों के कदम एक साथ उस कमरे में पड़े। अंबिका ने अलमारी से महेश को कपड़ा निकाल कर दिया और उसे एकटक देखते हुए कहा, "मां आपको बहुत याद करती थीं," "और तुम...?" महेश के इतना कहने पर अंबिका की आंखे पानी की धारा लेते हुए बहने लगीं।
दुखी होकर वह कमरे से बाहर जाने लगी, बिना मुड़े पीछे से ही उसने कहा, "महेश बाबू आप आराम करिए। मैं खाना लेकर अभी आती हूं।" अंबिका के जाते ही महेश ने काले झोले से शराब की बोतल निकाली, और एक सांस में पूरी बोतल गट करके पी गया। "क्यूं महेश बाबू सो गए क्या...?" आधे घंटे बाद छोटी दादी और मौसी को खाना खिलाकर, अंबिका महेश के लिए खाना लेकर ऊपर आकर दरवाजा खटखटा कर बोली। "सो गए क्या महेश बाबू," "अरे! नहीं अंबू, दरवाजा खुला है, अन्दर आ जा।" महेश लडख़ड़ाते स्वर में बोला। कमरे में घुसते ही अंबिका को ऐसा लगा कि वह मधुशाला में प्रवेश कर गई हो, शराब की इतनी तेज बू मानो ऐसा लग रहा था कि पूरी दुनिया की शराब यहां बनती हो। अंबिका ने पलंग से लगी मेज पर खाने की थाली को गुस्से से रख दिया। और साड़ी के कोने से मुह ढंककर जाने लगी। तभी महेश ने टोकते हुए कहा, "अंबू नाराज है मुझसे,। क्यूं खाने के साथ पानी नहीं देगी, पूछेगी नहीं शराब क्यूं पीने लगा मैं? बोल...।" जाते जाते किसी हक ने मानों उसे रोक दिया हो, और अंबिका ने दरवाजे की आड़ से महेश को देखा, ट्यूबलाइट की तरह जलती-बुझती आंख, मानों उसे प्रणय निवेदन के लिए बुला रही हो। उस मासूम चेहरे को छोड़ जाने का मन अंबिका का नहीं कर रहा था, क्योंकि कहते है न। आप जिससे प्यार करते हैं, उसकी बुराई को अपनाना ही सच्चा प्रेम है लेकिन अंबिका ने अपने ऊपर काबू रखकर कहा," क्यूं जी, क्यूं महेश बाबू क्यूं पीते हो यह काला पानी।"
अंबिका को शराब से चिढ़ थी क्योंकि उसके पिता की मौत की वजह शराब ही थी वह सोचती थी यमराज, शराब के रूप में दुनिया में आते हैं और लोगों को उठा कर ले जाते हैं। वह अब महेश को खोना नहीं चाहती थी। " क्या कहा काला पानी। हठ... यह काला पानी नहीं मदिरा है मदहोश करने वाली बाहें होती हैं इसकी, जो भी इससे आलिंगन करता है बस इसी का दीवाना हो जाता है।" महेश ने हंसकर कहा, विलायत में तो इसका फैशन है, अंबू.. मै तुझे एक बात बताना चाहता हूं।" अंबिका को महेश के मुंह से अंबू सुनकर ऐसा लगा कि महेश अभी उससे प्रेम का निवेदन करेगा। जैसे पलभर में उसे बरसों की पूजा का फल मिल जाएगा। अंबिका ने शर्माते हुए कहा, बोलिए महेश बाबू...।"
बहूत सून्दर है तू.. अंबिका जाकर पलंग के पास खड़ी हो गई, दिल की तेज गति से चलने के कारण उसका चेहरा कुमकुम की तरह लाल हो गया "अंबू बहूत सून्दर है तू...। दुनियावालों से बचाकर रखना अपनी सुन्दरता नहीं तो नजर लगा देगें तुझे, समझी पगली।" महेश के मुंह से तारीफ उसे अच्छी लग रही थी, उस लग रहा था, शराब से धुत आंखों से भी उसके स्वामी ने उसे निहारा जिनके लिए वह सुबह से सज-धज रही थी। महेश ने फिर शराब में धुत होकर अपनी आपबीती बताना शुरू की "अंबू... शराब से कब मेरा रिश्ता बन गया पता नहीं चला।
विलायत में जाने के बाद वहां का रंग ढंग मुझे अच्छा नहीं लगता था, सिर्फ पढ़ाई करना ही मेरी दिनचर्या थी कॉलेज में टॉपर था मैं," यह कहकर महेश खुलकर हंसा, "हा... हा...।" "क्यूं हंस रहे हैं आप, यह तो अच्छी बात है।" अंबिका ने महेश पर गर्व करके कहा,। "तू पगली है... अंबू , कॉलेज में डॉली नाम की एक लड़की थी। मुझसे एक साल जूनियर थी।' महेश ने कहा, यह सुनकर अंबिका का चेहरा गुस्से से लाल हो गया उसने कहा, 'आप क्या कह रहें हैं...?", 'सच कह रहा हूं अंबू, कब मैँ उस डॉली का दीवाना हो गया, जिसने मुझे धोखा ही नहीं मेरा खुद से विश्वास उठा दिया,मेरा सब कुछ छीन लिया..., सब कुछ... उफ...।" यह कहकर महेश की आंख लाल हो गयी। "आप रो रहे हो महेश बाबू।" अंबिका ने महेश को सांत्वना देते हुए कहा, "वह विलायतनी आपके लायक नहीं थी, कमबख्त... भगवान उसका भला कभी न करेंगे देखिएगा। " अंबिका ने गुस्से से कहा, "उसी चुडै़ल के वजह से आप शराब पीने लगे... हो... जरा सी भी हमारी याद नहीं आई...।" अंबिका ने डॉली से जलन को छुपाते हुए और महेश पर पूरा हक जताते हुए कहा," अब आप शराब नहीं पीएंगे।" "क्यूं न पीऊं , शराब तो मेरी सबकुछ है।" महेश ने चिड़चिड़ाते हुए कहा "बस! महेश बाबू बहुत हो गया, नहीं सुन सकती मैं आपकी हार की कहानी और न अब आप कभी शराब को हाथ लगाएंगे।" अंबिका ने झगड़े वाले स्वर में बोला। तभी महेश ने कहा," क्यूं अंबू किस अधिकार से तू मुझे शराब पीने को रोकती है बोल, कौन है तू मेरी...? चुप क्यूं है बोल?" यह सुनकर अंबिका के सपनों का महल ऐसा टूट गया मानों जैसे छोटी चिंगारी ने पूरी बस्ती को जलाकर राख कर दिया हो।
अंबिका टूटा दिल लेकर नीचे चली गयी। महेश भी पूरा दिन कमरे में ही रहता और अंबिका नीचे घर का काम करने मे व्यस्त थी। और दोनों की दिनचर्या उस दिन के बाद से यही हो गई थी। महेश दिन भर कमरे में पड़ा... पड़ा शराब पीता और अंबिका घर का सारा काम काज करती। ऐसे करते करते न जाने कितने दिन बीत गए और फिर एक रात करीब १२:३० बजे तड़... तड़... तड़कने की गूंज से पूरा घर हिल गया, चारों तरफ अंधेरा, ही अंधेरा था, बादलों के बीच में कड़कती बिजली आज रात कुछ होने की सूचना अंबिका को शायद दे रही थी। "अरे बाप रे, बाप! इतनी तेज से बारिश। बिजली भी चली गई क्या करूं मैं," अंबिका हड़बड़ाते हुए उठी। "अरे, दादी मां और मौसी के कमरे में लालटेन जला दूं' अपने मन में ये सोचती हुई अंबिका अपने खटिया के बगल में छोटी से मेज पर रखी लालटेन को वहीं पड़ी माचिस से जलाकर भीगती हुई इस पार से उस पार तक जाकर दादी के कमरे में लालटेन रखने लगी।
"ऐ... छोकरी जाकर महेश के कमरे में उजाला कर आ, बिचारा अंधेरे में परेशान होगा।" अंबिका को जैसे मुंहमांगी मुराद मिल गयी वह भी अपनी प्रियतम का चेहरा देखने को कब से बेचैन थी। पूरे दिन वह जब काम करती तो महेश या तो कमरे में रहता या गली में मिश्रा जी के घर अपने दोस्त रमेश के साथ शराब पीने में मस्त रहता। खाने पीने का होश उसे कहां रहता, अंबिका पूरे दिन भूखी ही रह जाती कि रात को जब उनका चेहरा देखूंगी तब ही व्रत तोडूंगी। लेकिन ऐसा न हो पाता। इस तरह एक हफ्ते बिना, कुछ खाये-पीये बीत गए। अंबिका सूख कर कांटा हो गई लेकिन महेश को इसकी खबर ही कहां थी। लेकिन उस भयानक रात में मौसी के मुंह से यह सुनकर अंबिका के अन्दर न जाने कहां से ऊर्जा आ गई और वह माचिस की तीली जलाकर आंगन से बाईं ओर की सीढ़ी पर चढऩे लगी जहां महेश का कमरा था। "ठक-ठक", "अंबू अन्दर आ जा।" महेश ने गम्भीर होकर कहा "मौसी ने कहा था कि आपके कमरे में रोशनी कर दूं।"
यह कहते हुए अंबिका ने अंधेरे कमरे में माचिस जलाई, जिसकी रोशनी में महेश ने बारजे से खड़े होकर उस मुखड़े को देखा जिसे देखकर उसे ऐसा लग रहा था कि अंधेरे में सूरज ने निकलकर रोशनी कर दी है। दोनों एक दूसरे को देखते रह गए। तभी अंबिका का ध्यान लालटेन पर गया, और लालटेन जलाकर जाने लगी तो अचानक उसकी नजर बारजे में लडख़ड़ाते महेश पर पड़ी। वह दौड़कर महेश को पकडऩे लगी। "गिर जाएंगे आप! आपको पता है कैसे हो गए हैं आप, क्यूं करते हैं आप ऐसा? आपको कुछ हो जाएगा तो मेरा...।" यह कहकर दुबली-पतली अंबिका फूट-फूटकर रोने लगी " तू तो ऐसे रो रही है जैसे मैं मर गया महेश ने दबदबाते स्वर में बोला। "राम, राम, राम मार डालेंगे आप मुझे...।" अंबिका ने सिसकी लेते हुए कहा। महेश अंबिका के हाथ से बोतल छीनकर पीने की कोशिश करने लगा, और अंबिका रोकने का प्रयास करने लगी। अचानक बारिश और तेज होने लगी कड़ाक-कड़ाक, तड़ाक-तड़ाक बिजली की तेज आवाज ने महेश को काबू से बाहर कर दिया, उसने बोतल ने देने पर अंबिका के सिर पर बोतल छीन कर प्रहार कर दिया जिससे अंबिका की मांग खून से लाल हो गई।
अंबिका अवाक होकर महेश को देखने लगी खून की धारा एकदम सिन्दूर के समान चमक रही थी। अंबिका ने सामने सिंगारदान में खड़ी अंबिका को सुहागन देख रही थी जो उसे हमेशा महेश की नौकरानी कहती थी वह आज उसे सुहागन देखकर चुप थी। "यह क्या किया आपने महेश बाबू, आपको पता है इसका मतलब।" अंबिका ने रोते हुए कहा। "मुझे सब पता है...।" यह कहते हुए महेश जमीन पर गिर गया और अंबिका बहती मांग का खून पोछना भी नहीं चाहती थी उसके खून से वो पीली साड़ी लाल रंग में तब्दील हो गई। अंबिका ने अपने स्वामी को ठीक से बिस्तर पर लेटाया। और दौड़ते हुए नीचे जाने लगी कि कहीं कोई देख न ले।
दूसरे दिन सोमवार की उजियारी सुबह थी चारों तरफ सूरज की रोशनी ने अपने पैर पसार लिए थे। अंबिका भी अपने आपको सुहागिन मानकर खुश थी " चाहे पल ही भर क्यों न हो, मैं खुश हूं, बहुत खुश, मेरी पूजा का फल मिल गया।" वह सुबह उठकर नुक्कड़ वाले मन्दिर में शिव जी के सामने दिया जलाने गई, मां को सिन्दूर भी चढ़ाया, अंबिका बहुत खुश थी। " आज मैं महेश बाबू के मनपसंद पोस्ते की खीर बनाऊंगी, और अपने हाथ से खिलाऊंगी" यह सोचते हुए वह खूबसूरत दुबली पतली अंबिका घर को चलने लगी तभी अचानक उसके कदम रूक गए "यह क्या...? कार और तांगा दोनों एक साथ दरवाजे पर कौन आया होगा? कहीं वो... नहीं, नहीं...।"
डॉली मेम का इंतजार अपने मन को चाबुक से मारते हुए वह अन्दर गई तभी आंगन में एक मोम के समान गोरी मेम कुर्सी पर बैठी थी साथ में बहुत सारे विदेशी लोग उसके पास खड़े थे। अचानक उसकी नजर एक अधेड़ उम्र के युवक पर पड़ी जो खाट के बाईं ओर जमीन पर बैठकर मौसी का पैर दबा रहा था। " ऐ! छोकरी कितनी देर तक पूजा करती है। भगवान का सारा आशीर्वाद जैसे तुझे ही मिलेगा, जाकर चाय-पानी का बंदोबस्त कर।" दादी ने रॉब दिखाते हुए कहा अंबिका की आंखें लाल हो गई वह सिर झुकाये जाने लगी।
"अरे! सुन जाकर महेश को बता दे कि डॉली मेम उनका बेसब्री से इंतजार कर रही हैं।" दादी ने उससे कहा, तभी मौसी ने बीच में मजा लेते हुए कहा, " अरे दादी! इसको क्यों ऊपर भेजती हो यह होती कौन है? मैं ही डॉली मेम को ऊपर महेश बेटा के कमरे में छोड़ आती हूं।" मौसी ने चालाकी के स्वर में बोला, " तू-नीचे रह, खाना-पानी तैयार कर मेहमानों के लिए, नौकरानी कहीं की।" मौसी डॉली मेम को लेकर ऊपर मेहश के कमरे से लगी सीढ़ी पर चढऩे लगीं। अंबिका डॉली को देखते हुए अपने भोले नाथ को याद करके रोने लगी। "आज ही तो मैंने सोलह सोमवार का उद्धापन किया उसका फल यह, नहीं.... प्रभु।" अंबिका चौके में जाकर खूब रोने लगी तभी उसके कानों में आवाज आई "क्यूं श्यामू माली पसंद आई छोकरी शादी तय समझूं न!"
दादी ने श्यामू से पूछा। श्यामू माली वही है जिससे मौसी अंबिका की शादी तय कर चुकी थी। "अरे माई पूछना क्या है?, मैं तो आज ही इसे ले जाने आया हूं, बस! आप और मौसी आशीर्वाद दें।" श्यामू माली ने लोभी के स्वर में बोला। यह सुनकर अंबिका के हाथ से चाय की प्याली गिर कर टूट गई। "क्या तोड़ा" दादी ने कहा, "बड़ी कमबख्त है...।" अंग्रजों को उनकी भाषा समझ में न आई वे मुस्कुरा कर रह गए। बस तभी अंबिका खुद को कोसते हुए चाय, समोसा लेकर आंगन मे आई। अंग्रजों के साथ वह श्यामू माली उसे लालच की नजरों से देखने लगा लेकिन अंबिका उस रात से सिर्फ महेश की हो गई थी उसका शरीर जरूर आंगन मे था लेकिन मन महेश के पास था। तभी ऊपर से चप्पल की खट-खट करके नीचे उतरने की आवाज आई।
अंबिका ने पीछे मुड़कर देखा महेश के साथ गोरी मेम और मौसी नीचे आ रहे थे "क्यूं रे अंबू मेहमानों को ऊपर के कमरे तक ले जाते हैं क्या!" महेश ने गृहस्वामी की तरह बोला, " यह क्या इन्हें नाश्ता पानी कराके बाहर का रास्ता दिखाओ।" "अरे बेटा यह डॉली मेम इस घर की बहू बनना चाहती हैं तेरी सहेली हैं, विदेश में मिले थे तुम दोनों। सब बताया है इन्होंने मुझे। " दादी ने धीरे से बोला, नहीं दादी.. आप गलत सोच रहीं हैं डॉली सिर्फ मेरी क्लास में पढ़ती थी, बस! हमारा कोई रिश्ता नहीं है। महेश ने समझाते हुए कहा, " महेश आई एम वैरी सौरी, एंड आई डोंट वान्ट टू डिस्टब योर लाइफ, अम्बिका इज रिएली ब्यूटीफूल एण्ड ओनली मेड फॉर यू।" डॉली ने महेश से बोला, " थैंक्यू डॉली" महेश ने मुस्कुराते हुए कहा।
अंबिका सिर झुकाए रो रही थी तभी डॉली मेम अंबिका के पास आईं और बोला, " महेश इज ओनली योर। " अंबिका को अंग्रेजी समझ में न आई लेकिन वह डॉली के भावों को समझ गई और दोनों गले लग गईं। सभी लोग चुप थे, डॉली अपने पेरेन्ट्स को समझाकर कार से चली गई, महेश चुपचाप कमरे में जाने लगा। " अंबू... आज चाय पीने और पौस्ते की खीर खाने का मन कर रहा है आज यही बनाना।" तभी "छोड़ दो मुझे महेश बाबू...।
मेरी परिणिता हो... बचा लीजिए... अपनी अंबू को।" महेश के कदम अपनी अंबू सुनकर अचानक पीछे की ओर मुड़कर रूक गए, महेश ने देखा कि श्यामू माली अंबिका का हाथ खींचकर ले जा रहा था, दादी और मौसी चुपचाप खड़ी हंस रही थी, उस पल महेश को ऐसा लगा कि वह अगर आज कुछ न कह पाया तो शायद कभी न कर पाएगा उसे लगा कि कोई उसकी दुनिया छीन रहा है। "अंबू... तुम मेरी हो, मेरी हो , कोई नहीं छीन सकता तुम्हें मुझसे।" यह ख्याल बार-बार महेश को उसकी ओर बढ़ा रहे थे, अंबिका का आंसू अपने प्रेम को बयां कर रहा था तभी महेश ने श्यामू को धक्का देते हुए कहा कि "तुझे घर की मालकिन को छूने की हिम्मत कैसी हुई।" "मौसी ने इससे मेरी शादी तय कर दी है इसे मैं ले जाने आया हूं, आज से यह मेरी पत्नी है। दूर हठ जा शराबी।" श्यामू माली ने झगड़े के स्वर में बोला।
यह सुनकर महेश ने मौसी को तरेर कर देखा और श्यामू को खींचकर एक थप्पड़ रसीद कर दिया। "तुझे पता है, यह कौन है, मौसी कौन होती है, इसका विवाह तय करने वाली यह मेरी परिणिता है।" महेश ने पास रखी अंबिका की पूजा की थाली से सिन्दूर निकालकर उसकी मांग भर दी। "अंबू तू मेरी परिणिता हो... मेरी परिणिता हो...।" यह देखकर दादी ने कहा, "यह क्या किया निक्कमे नौकरानी को महारानी बना दिया।" "मेरी दादी, यही तुम्हारी असली बहू है। इसने मेरी अनुपस्थिति में इस घर को ही नहीं तुम्हें भी संभाल है वरना यह मौसी तुम्हें सड़क पर ला देती। यह गंवार जरूर है पर फैसले पढ़े लिखों से ज्यादा सही करती है। मेरी खुशी है अंबू... मेरी जिंदगी है अंबू... यह अब तुम्हारी बहू है।"
महेश ने खुश होकर कहा, " मैं हमेशा से सिर्फ इसी से प्यार करता था और यह भी मुझसे प्यार करती थी पर आपके डर से कभी कहा नहीं, अपना लीजिए इसे दादी।" महेश ने जिद करते हुए कहा। " तेरी खुशी में ही मेरी खुशी है।" दादी ने अंबिका को देखते हुए कहा। " अरे श्यामू तू यहां क्यों खड़ा है भाग यहां से, अरे! तेरा तांगा खाली जाएगा ऐसा कर तू मौसी को भी साथ लेता जा, बिचारी कई बार जाना चाहती थीं लेकिन दादी की वजह से नहीं जा पाईं। क्यों मौसी ठीक है न।" , महेश ने गुस्साते हुए कहा। "नहीं दादी मैं नहीं जाऊंगी, मैं यहां ठीक हूँ।" ,मौसी ने गिड़गिड़ाते हुए कहा। मौसी ऐसा कहता हुए दादी के पास आई, परंतु दादी ने मौसी की असलियत जानकर उससे मुंह फेरते हुए दूर खड़ी अंबू के पास गई।
मौसी को अंत में मजबूर होकर श्यामू माली के साथ तांगे में बैठकर जाना पड़ा। "अरे बहू..." यह सुनते ही अंबिका की आंखों से पानी गिरने लगे और उसने दादी के पांव पर अपना सिर रख दिया, दादी ने भी उसे प्यार से गले लगाकर कहा, " तू सच में बहुत सुंदर और गुणवान है, ये तो महेश की मौसी ने मेरे कान तेरे खिलाफ भर दिए थे और मैं उसकी बातों में आकर भटक गई थी..., मुझे माफ कर दे...बहू।" दादी ऐसा कहते हुए अम्बिका के पैर पडऩे लग गई। "नहीं दादी, मुझपर पाप चढ़ाएंगी क्या? मेरी जगह आपके कदमों में है?" अंबिका ने रोते हुए कहा। तभी महेश ने भी कहा "तुम्हारी ही नहीं, हमारी जगह दादी के कदमों पर है।" महेश ने अंबिका के साथ झुककर दादी का आर्शीवाद लिया, दोनों एक दूसरे को पाकर खुश थे जैसे चांद और चांदनी का वर्षों बाद मिलन हुआ हो महेश अंबिका को प्यार से देखकर मुस्कुराया और अंबिका शर्माते हुए झुक गई।
तभी दादी ने कहा, "सदा सुहागिन रहो। खुश रहो, तुम्हारी जोड़ी अमर रहे दूधो नहाओ, फूलो फलो और ये आंगन बच्चों की किलकारी से भर दो।" यह सुनकर अंबिका शर्माते हुए हक से महेश के कमरे में गई और सिंगारदान में खड़ी अंबिका से ऐंठ कर बोली, "आज पता चला तुझे प्यार दुनिया की हर ताकत से बड़ा होता है, सच्चा प्यार कभी नहीं हारता, मुझे मेरी पूजा का फल मिल गया मुझे महेश बाबू मिल गए, मेरे स्वामी मिल गए। मैं उनकी परिणिता हूं...मैं परिणिता हूं...।" तभी महेश ने कमरे में प्रवेश किया और अंबिका ने सिर पर पल्लू रखकर महेश का पैर छुआ। महेश ने प्यार से उसे सीने से लगाकर कहा, "मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूं अंबू...।" अंबिका ने लजाते हुए कहा, "मैं भी स्वामी।"
(This story is taken from internet. I posted as I like it very much. It was something which touched my heart. My special thanks to the original writer.)
Bahut hi bhawna pradhan kahani. pyar aur karttavya ke dwandwa ko rekhankit karti hui ek aasha ki pyaas liye, drishti liye niharti kahani jo kewal kahani nahin nahin hai...
ReplyDeletewah ! great selection
ReplyDeleteachchha hai dear
ReplyDeleteबहुत सुन्दर पोस्ट|
ReplyDelete